लिखना चाहती कलम
पर रुक जाती उंगलियाँ।
हैं मन में उनकी यादें व
पहेली बुझाती गलियां।
शब्द स्तब्ध जाते ठहर
क्या कह, लिखे उन्हें खत।
मानो है विवसता जाने
को उस पार सारे तोड़ हद।।-
ख़ुद के हुश्न पर मेरी तफ़्सीर पर गर नहीं हो यकीं।देखो आईने में इक बार तो ख़ुद को, मेरी नज़र से।।
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रुकता नहीं इच्छाओं का उड़ता परिंदा ख़्वाब सा।
जी में आता पकड़, रहूं तनहा उसे दामन से लगा।।-
सब्र से काम लो, पूरा होगा सब,
बस इक यकीं पर देता साथ रब।
जल्दी में सारा बिगाड़ लेते चतुर,
यहां मिलता सब नीयत के सबब।
मत चलो चाल तुम खरगोश की,
सतत चल कछुए ने ढाया गज़ब।
हर कोशिश में केवल संकल्प हो,
विजय में संघर्ष की होती अदब।
है रहता ख़ुदा ख़ुद में तभी तो वो
देख लेता, तुम्हारी काटी नकब।।-
थी मुलाकात इक हल्की सी वो, रहा मैं डरा डरा।
देख, बस चल दीं वो हँस, दिल मेरा न हुआ हरा।।-
वो मासूम हँसी लहर सी,
बड़ी रात की हसीं सहर सी।
जैसे कोई नदी पहाड़ी
नीचे मैदानों में उतर ठहरती।-
मैं अपनी हद लिखूँ
या तुम्हारी हद लिखूँ।
चाहती तुम्हें इक ख़त लिखूंँ।
लिखना तो बहुत
सोंचती मैं क्या बेहद लिखूँ।
जैसे लिखना नहीं आसां।
इसलिए आज हूँ मैं परेशां।।-
किसी दिल की गहराई, लेती जब अंगड़ाई,
उठतीं लहरें छूने को अम्बर गहरे सागर की।
सपने आँखों में बस खेला करते मन आंगन
में, स्मित अधरों पर उभरे छलके गागर सी।
एक मौन संजोये बहके पग फैली देख प्रभा,
ढूढ़े पुनः एक प्रश्रय जैसे न अब वो घर की।
उष्ण ऋतु में बटोही की पीड़ा जानते विटप,
छाया में उनसे बातें करती ढाई आखर की।।-
अब दर-ख़ुर नहीं मेरा, है आज वो मौज-ए-दरिया।
है जाती हुई इक शाम और साहिल पर खड़ा हूँ मैं।।-