मैं अपने आप को कब तक वहम में रखता हूँ।
इसी करतब को मुझे आख़िरी तक देखना है।।-
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दुनिया में चलन आम है पर हमको उससे क्या।
इज्ज़त नीलाम कर हमें शोहरत न चाहिए।।
ढा उतने सितम मुझपे जितना ज़ोर हो तुझमें।
तू रब हो मुझे पर तेरी रहमत न चाहिए।।-
कीजिए कैसे के सब बयाँ,
कैसी नौबत ये अब आ गई।
रंजिशों से तो हारे न हम,
पर मुहब्बत हमें खा गई।।-
**ग़ज़ल**
बोझ इतना उठाकर भला, ज़ीस्त अब ये किधर जाएगी।
आपकी जुस्तजू में यूँ ही, उम्र तन्हा गुज़र जाएगी।।
ये ज़माना उतर जब गया,तो भला फिर वो क्या चीज है।
एक दिन वो बला भी तेरे ज़ेहन-ओ-दिल से उतर जाएगी।।
बेक़ली दिल में आँखों में अश्क, आज हम बेक़रार हैं मगर।
एक दिन आपको भी मेरी, याद अश्कों से भर जाएगी।।
लड़की मासूम थी जो बहुत, वो न जाने कहाँ खो गई।
हाथ छोड़ा था बस इसलिए,सोचा था कि वो घर जाएगी।।
ख़्वाब क्या थे हक़ीक़त है क्या ,हम कहें भी तो ‘रघुवंशी’ क्या।
क्या पता था के ये ज़िंदगी, इस तरह से बिखर जाएगी।।-
याद में मेरी तुम भी इक दिन
अश्क बहाओगे।
मेरे लिखे गीत-ग़ज़लों को
छुप-छुप गाओगे।।-
**ग़ज़ल**
माना के ज़िंदगी ये किसी काम की नहीं।
हमको भी तो तलब किसी मुक़ाम की नहीं।।
लिक्खी हैं साल-ए-नौ पे उसने सैकड़ों चिठ्ठी।
उनमें मगर कोई भी मेरे नाम की नहीं।।
आवारगी में गुज़री है अपनी तमाम उम्र।
हमें फ़िक्र भी तो अब किसी अंजाम की नहीं।।
तहज़ीब-ओ-'इल्म-ओ-फ़न जो बुजुर्गों से पाए हैं।
उन्हें सच में ज़ुरूरत किसी लगाम की नहीं।।
हम तुम हों फ़ख़त चाय और पुर-अम्न फ़ज़ा हो।
अब आरज़ू ऐसी किसी भी शाम की नहीं।।-
**ग़ज़ल**
यूँ चाँद से मुखड़े को भिगोना फ़ुज़ूल है।
अब ऐसे मेरे हाल पे रोना फ़ुज़ूल है।।
कब का मैं अपनी रूह से बिछड़ चुका हूँ दोस्त।
अब मेरा बोझ जिस्म का ढोना फ़ुज़ूल है।।
काँटों में बशर की हो जिसने सारी ज़िंदगी।
फिर उसको मखमली ये बिछौना फ़ुज़ूल है।।
रहती नहीं है उम्र भर इक उम्र की तलब।
अब हमको ज़िंदगी का खिलौना फ़ुज़ूल है।।
है और के वो दिल की कभी आरज़ू थी पर।
अब मुझको उसका होना न होना फ़ुज़ूल है।।
‘रघुवंशी’ अगर सीने में दिल ही न हो तो फिर।
पत्थर में बीज प्यार का बोना फ़ुज़ूल है।।-
**ग़ज़ल**
हर पल तुम्हारा नाम ले रहा हूँ आजकल।
यूँ तुमसे इंतक़ाम ले रहा हूँ आजकल।।
हर एक बात याद आ रही है पुरानी।
भीगे हुए बादाम ले रहा हूँ आजकल।।
दुनिया तो आमादा है के देखे मिरा धुँवा।
हिम्मत से पर मैं काम ले रहा हूँ आजकल।।
क्या बात है छपने लगे हो तुम किताबों में।
लिखने का तुमको,दाम ले रहा हूँ आजकल।।
दफ़्तर की हाय हाय न तो फ़िक्र-ए-नौकरी।
फ़ुर्सत में बैठे घाम ले रहा हूँ आजकल।।
‘रघुवंशी’ ज़िंदगी की ज़रा भी तलब नहीं।
फिर भी दवा तमाम ले रहा हूँ आजकल।।-
दुनिया तो आमादा है के देखे मिरा धुँवा।
हिम्मत से मैं पर काम ले रहा हूँ आजकल।।-
*ग़ज़ल*
मुझमें तिरी तलब तो शराबी से कम नहीं।
अपना क़रार भी किसी शादी से कम नहीं।।
शहरों में मुहब्बत का चोचला है बहुत आम।
गाँवों में मगर जान की बाजी से कम नहीं।।
मेरी ग़ज़ल के शेर में बस नाम तुम्हारा।
दुनिया को बताने को मुनादी से कम नहीं।।
जिसने लहूलुहान कर दिया मिरा ये दिल।
उसकी नज़र का वार कटारी से कम नहीं।।
‘रघुवंशी’ हर ज़ुबाँ से सुन रहा हूँ आजकल।
उसका ख़ुमार मुझमें ख़राबी से कम नहीं।।-