है दुर्योधन खड़ा निडर,
क़ुरूक्षेत्र में ये सोचकर,
है उसके साथ भीम,
द्रौण के होते किसका डर.
पितामह भी ये भाप गये,
दुर्योधन के हट से वे हार गये.
सब अपना कर्तव्य निभाये,
फिर पिछे कैसे कर्ण रह जाये.
देख कर कर्ण का दान, ज्ञान
वासुदेव भी ये मान गये,
कर्ण सा संसार में
ना कोई हो पाये,
कोई लड़े मित्रता की ख़ातिर
तो किसी ने प्रण निभाया.
पुराने कर्मों के फल,
सबने इस युद्ध में पाया।
बात सिर्फ़ इतनी सी थी,
संस्कारों की कहीं कमीं सी थी.
राजा धृतराष्ट्र के मन में बैर सी थी,
सकुनी के इरादे गैर सी थी,
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