मौन कभी, मुखर रही,
जिंदगी....
...सरल कभी, विरल रही,
व्यक्त हो न सकी मन से कभी,
वेदनाएँ..
...शून्य सी अनन्त रही...-
इंसानियत को ढूंढती है जिंदगी,
अब इतने एहतियात से।
हर इंसान खुदा बना बैठा है..
अपने मिजाज से।-
क्यों न एक बार ये गलती की जाए...
बचपन ओर जवानी की फेरबदली की जाए।-
क्यों न सवाल निग़ाहों में रहें,
कुछ तो वबाल विचारों में रहे।
की जाए क्यों रोशनी चिरागों से रोज़ाना,
कुछ तो वजूद जुगनुओं के उजालों के रहें।-
लेकर भावों का झोला,
जाने मनवा किस ओर चला।
कभी मोह से लिप्त हुआ
कभी विरक्ति के द्वार चला।
उजियारो का घर छोड़कर,
अँधियारों के ठौर चला।
लेकर भावों का झोला,
जाने मनवा किस ओर चला।
देखकर दुनिया की रंगों-ढंग,
ये बेरंगा- बेढंग चला।
लेकर भावों का झोला,
जाने मनवा किस ओर चला।-
किसी ने बहुत कुछ खोया
किसी ने सबकुछ पाया।
सुलझी सी जिंदगी को
दुनियादारी ने कितना उलझाया।
कुछ खुश रहें जिंदगी की उलझनों से जूझकर।
ओर कुछ को सुख का एक पल भी रास न आया।-
दुनिया कहती है जिसका 'उदय' है उसका 'अस्त' होना तय,
लेकिन "छठ पर्व" सिखाता है़ जो 'अस्त' होता है उसका 'उदय'होना तय !
जय छठी मईया।
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कुछ कोरे कागज
कुछ कहानियां बेहिसाब
कुछ खूबियां,
कुछ खामियां...
बिखरी कभी,निखरी कभी....
पर, रुकी नही..थकी नही,
बड़ी सादगी से, थोड़ी संजीदगी से....
लिखती रही....
मैं ज़िदगी की किताब।-