Rabiya Khanam   (Rabiya Khanam)
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Joined 26 December 2020


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Joined 26 December 2020
29 NOV 2021 AT 6:22

मैं थक गया था कह-कह के,सो चुप रहने लगा था
हर ज़ुल्म-ओ-सितम भी हंस हंस के सहने लगा था

सुनने गया था दर्द-ए-दिल,ग़मगीनों की महफ़िल में
उठने लगी थी महफिल जब मैं कुछ कहने लगा था

आज़ियतों ने मेरे सब्र की इंतेहा को जब पार किया
अश्क आंखों से नहीं , ख़ून जिगर से बहने लगा था

जो खड़ा किया था कभी तुमने भरोसे का वो मकान
कच्ची थी उसकी बुनियाद ,बड़ी जल्द ढहने लगा था

कई बार सदा देने पर भी नहीं खुला उसका दरवाज़ा
शायद उसके घर में अब कोई अजनबी रहने लगा था

-Rabiya khanam
















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16 JUN 2021 AT 16:08

मेरी आदतों की भी ये कैसी हिमाक़त है

के जिससे अदावत है उसी से रफ़ाक़त है

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14 MAY 2021 AT 5:56


चलो, ग़म में भी एक हौसला जगातें हैं
अपने घरों को नई उम्मीदों से सजाते हैं..

अपनी बातों से या मिन्नतें करके नहीं
सेवईयां खिला कर रूठों को मनातें हैं..

मुश्किल घड़ी भी एक दिन गुज़र जाएगी
गले मिलकर एक दूजे को समझाते हैं..

गुज़रे हुए तमाम तकलीफों को भूलकर
चलो,इस बार हम फ़िर से ईद मनातें हैं..

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8 MAY 2021 AT 13:22

"उन्हीं लफ़्ज़ो के आंसू बनते हैं
जो ज़ुबां से नहीं निकलते..."

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4 MAY 2021 AT 2:05

अगर हम हैं मुसलमां तो फ़िर क्यूं ख़ुदा से नहीं डरते
आख़िर ख़ुद की इस्लाह हम ख़ुद से क्यों नहीं करते

पता है, एक रोज़ मुझको भी ये दुनियां छोड़ जानी है
फ़िर क्यों हर रोज़ जीने को यहां हम हर रोज़ हैं मरते

गर जीत गए हर बार तब भी एक दिन हार ही जाएंगे
न जानें कैसा है गुमान हमें, क्यूं दुनियांवी जंग हैं लड़ते

जो होता ख़ैर हम में तो न छोड़ते सब्र का दामन कभी
ना लगती गले ये आफतें ,ना ऐसे मरहले में हम पड़ते

ज़रा भी ख़ौफ़ सीने में अगर आख़िरत का हम रखते
फ़िर गुनाहों की तरफ़ हमारे क़दम हरगिज़ न यूं बढ़ते

कितनी एहसां फ़रामोशी करी है अपने परवरदीगार की
हो पाता ये एहसास तो तमाचा ख़ुद से ख़ुद को ही जड़ते

होता हक़ीक़त का अंदाज़ा तो न जीते इतनी ग़फ़लत में
ना हीं इतने झूठे ख़्वाब हम बैठकर सारी ज़िन्दगी गढ़ते

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3 MAY 2021 AT 16:11

हर तरफ़ दहशत का डंका बज रहा इतनी ज़ोर से
कान के पर्दे नहीं, कलेजा फट रहा ग़म के शोर से..

क्यों जीने को हैं मजबूर आलम-ए-बेबसी में हम
मौत ही की ख़बर क्यों आ रही है चारों ओर से..

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3 MAY 2021 AT 5:57

जब तलक इस जिस्म में जान रहे बाक़ी
कच्चा ही सही मगर मेरा ईमान रहे बाक़ी

ना झुके ये सिर मेरा किसी बशर के आगे
ज़्यादा नहीं बस इतनी सी शान रहे बाक़ी


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2 MAY 2021 AT 0:43

हर सांस पर इक आस है..
आज ज़िन्दगी बदहवास है..

कितने ही हो रहें हैं रूख़्सत..
और कफ़न बन रहा लीबास है..

देख कर मंज़र-ए-मौत हर तरफ़..
रूह की तबियत भी नासाज़ है..

दिल में तारीकी ही रह गई बाक़ी..
कुछ आता भी नहीं अब रास है...

उड़ गई है रौनक हर जगह से..
हर चेहरा ही दिखता उदास है..

आलम है कुछ ऐसी दहशत का..
लगता है थोड़ा ही वक़्त अब पास है..

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30 APR 2021 AT 1:47

ए बशर तुझे अब तो संभलना होगा
ख़ुद को किसी तरह से बदलना होगा

तुझे देखना होगा क़ुदरत के कारनामें
हर क़दम एहतियात से चलना होगा

होगी रज़ा ख़ुदा की तो रहेगी ज़िन्दगी
वरना डूबते सूरज की तरह ढलना होगा

अब तो कुछ भी नहीं बाक़ी दावेदारी को
न जाने कब घरों से बेख़ौफ़ निकलना होगा

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29 APR 2021 AT 23:10

"आदमी से बचने के तो रास्ते हज़ारों हैं..

जब ख़ुदा पकड़ता है,रास्ता नहीं मिलता.."

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