मैं थक गया था कह-कह के,सो चुप रहने लगा था
हर ज़ुल्म-ओ-सितम भी हंस हंस के सहने लगा था
सुनने गया था दर्द-ए-दिल,ग़मगीनों की महफ़िल में
उठने लगी थी महफिल जब मैं कुछ कहने लगा था
आज़ियतों ने मेरे सब्र की इंतेहा को जब पार किया
अश्क आंखों से नहीं , ख़ून जिगर से बहने लगा था
जो खड़ा किया था कभी तुमने भरोसे का वो मकान
कच्ची थी उसकी बुनियाद ,बड़ी जल्द ढहने लगा था
कई बार सदा देने पर भी नहीं खुला उसका दरवाज़ा
शायद उसके घर में अब कोई अजनबी रहने लगा था
-Rabiya khanam
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