" तुम मेरे पास हो अब कोई हरैत तो नहीं,
जमाल अब कुछ भी हो मुहब्बत तो नहीं,
दायरा जो कुछ भी रहे हम दर बदर तो नहीं,
फिर इस रफ़ाक़त में कही नाम तो आयेगा सच में हम मुहब्बत में तो नहीं ,
इंकार करे इकरार करें अब इस रफ़ाक़त में कही कोई उल्फत तो नहीं,
जाने किसकी कशिश किस का एहसास हैं ये किसी की जाज़बियत तो नहीं.
--- रबिन्द्र राम
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" फिर इस आलम से कहीं तेरा मेरा राब्ता तो हो ,
मुहब्बत को फिर कहीं मुहब्बत की तरह तो हो ,
जाने किस ख़्याल से मैं नाकाफिर नहीं हो रहा,
इक याद महज़ काफी नहीं तेरी दस्तरस तो हो."
--- रबिन्द्र राम
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" फिर किसी से किसी का रहा मैं,
इस इल्म से ताउम्र ज़ाहिल रहा मैं,
मेरे हौसले के उड़ानें और भी थी कहीं,
फिर इस कश से धुआं उड़ाता रहा मैं ,
ग़ाफ़िल-ए-तौर फिर क्या क्या ना करता मैं,
मुख़ातब फिर करता मैं किसको इश्क़ में इस लिए गुमनाम रहा मैं."
--- रबिन्द्र राम
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*** दुश्वारियां ***
" बेशक मेरा हाल ऐसा ना था,
हसरतें मुहाल हो ऐसा ना था,
बात जो भी हो फिर करता मैं जद्दो-जहद,
तुम हम मिल जाते कमाल ऐसा ना था,
दुश्वारियां हैं जो कुछ भी ऐसे में कही,
मिल के बिझरना लिखा ना ऐसा ना था,
जो तय थी बातें गाहे-बगाहे होती रही,
मंजिल के पास आकर दुश्वार हुए ऐसा ना था,
मिलना मिलाना फिर कहीं से लगा रहेगा,
तुम हमें कहीं याद भी ना आवोगे ऐसा था."
--- रबिन्द्र राम
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*** कविता ***
*** मुहब्बत ना करते ***
" ऐसा तो नहीं था फिर कहीं मुहब्बत ना करते,
फिर तुझे कहीं मेरे नफ़रत के काविल तो ना करते,
इश्क़ की पावनदीया हैं जो कुछ भी इस ऐवज में,
मैं तुम्हें ना जानते हुए कुछ भी इशारा तो ना करते,
मेरे दहलिजो पे हैं जो कुछ भी पमाल करने को ,
मैं तुम्हें ना जानते हुए भी इश्क़ का इरादा तो ना करते ,
हो जो कुछ भी मेरे ज़ेहन में फिर मेरे जो कहते,
फिर तुम इसे कहीं कभी कबुल तो ना करते,
फिर इस आलम में मेरे दस्त में जो कुछ भी रह गया,
हम कहीं इस बात हामी भरते तो तुम कहीं इंकार तो ना करते ,
मेयार-ए-ज़िन्दगी हैं जो कुछ भी जैसे भी हैं तेरे बग़ैर,
ऐसा तो नहीं कहीं तेरे बग़ैर हयात-ए-हिज़्र की ख्वाहिश तो ना करते."
--- रबिन्द्र राम
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" इश्क़ की वेवाकिया फिर कब मिलेगी,
तुम भी कह सको मुझे तुम से मुहब्बत हैं ,
फिर जाने किस गली शहर में तेरा मक़ाम होगा,
तु मुझे जानते हुए भी मुझसे फकत अंजान होगा,
सब हसरतें कहीं शादाब से हैं इस मंजर में,
तेरी मुहब्बत मेरे आंखों में दुर तलक ख्वाब से हैं,
फिर जाने तुम मुझे कब मिलोगे इस आलम से ,
ऐसे में फिर कोई रिश्ता मुझे गवारा ना रह जायेगा ,
कहीं वो याद जो हर पल हैं मुशलसल हैं,
मेरे लहजे में शुमार वो मुख्तलिफ पल हैं
--- रबिन्द्र राम
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" जाने हम तुझको को फिर क्या मिलेंगे,
तेरे बाद फिर हम किसको फिर क्या मिलेंगे,
ये रंजिशें हैं फिर कुछ और भी मयस्सर हो जाऊं फिर किसको ,
फिर इस रफ़ाक़त में तेरे बाद फिर किस को क्या मिलेंगे. "
--- रबिन्द्र राम
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" थोड़ा इतराने दे हमको मुहब्बत को मुहब्बत की तरह करने दे ,
हो बात जो बात इस बात पे थोड़ी हक़ीक़त ब्यान करने दे इस फसाने में,
फिर जहां तक कुछ बातें बनें इन बातों में कही भी ,
तेरा ज़िक्र यूं लाजमी हैं तो फिर इतना इश्क़ लाजमी तो करने दे."
--- रबिन्द्र राम
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" फिर किस-किस के सय में किस नदामत से गुजरेंगे,
हम तो तुम्हें याद कर-कर के खुद इस अज़िय्यत से गुजरेंगे ,
उल्फत के एहसासों को फिर दरकिनार हम क्या ना करते,
इतना तो याद आज तुम हो जो दिले-ए-यार बेकरार हम ना करते. "
--- रबिन्द्र राम
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" तेरे रु-ब-रु होने तो देते,
इश्क़ के सय में कुछ इज़ाफ़ा तो करने देते,
इल्म की आरज़ू में दस्तुर-ए-ख़्याल बाजिब तो कर ,
जहां तक हो सके मुझे अपना साक़ी-ए-यार प्यार ब्यार तो कर. "
--- रबिन्द्र राम
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