Rabindra Nath Singh Munda   (रबिन्द्र नाथ "कैवल्य")
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Joined 15 June 2021


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Joined 15 June 2021

खुद को दिखाने में मशगूल ना होना,
थोड़ा उन्हें भी देख लेना।

खुद की ही सुनाते मत बैठ जाना,
जरा उनकी भी सुन लेना।

सब से मिलना मगर,
अपने अहम् को जरा छुपा के रखना।

अगर उसे साथ ले आये।
ना तुम सुन पाओगे, ना वो मिल पाएंगे।

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चलते चलो चाक की तरह,
मंजिल मिलेगी,
तुम्हें भी और मुझे भी।

बस पत्थर बन के रह गए,
ठोकर लगेगी,
तुम्हें भी और मुझे भी।

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हाथों में कहाॅं ढूंढते हो,
मेरे इश्क़ का गुलाब,
मैंने दिल में छुपा रक्खा है।

हाथ का गुलाब अभी ताजा है,
और कल भी ताजा रह गया,
नकली होगा देने वाले की तरह।

दिल का गुलाब खिलता रहेगा,
तेरी हर मुस्कान से और,
खुश्बू रहेगी मेरे जाने के बाद भी।

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इंसान चाहे कितनी भी कोशिश कर ले,
प्रकृति की कारीगरी की बराबरी नहीं कर सकता।

प्रकृति में एक शुकून है,एक ठहराव है,
कृत्रिम जगत उतना ही खोखला और नीरस है।

वादियों, पहाड़ों, को देख मन प्रसन्न होता है।
और ऊॅंची इमारतों को देख माथे पर बल पड़ जाते है।

प्रकृति देना जानती है, और जब लेती है,
तब कुछ नया श्रृजन करती है, रखती कुछ नहीं।

कृत्रिम जगत लेना जानती है, और जब देती है,
तब बदले में आजादी ले लेती है, बचता कुछ नहीं।

प्रकृति में मुक्ति के,मोक्ष के मार्ग छुपे हैं,
कृत्रिम जगत माया है, छल-कपट,भटकाव का मार्ग।

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मेरे घर राम आएं हैं,
युग परिवर्तन का पैग़ाम लाए हैं।

क्या ही दीप जलाऊॅं मैं,
जब आसमां में सूरज आएं हैं।

असत्य के दस सिर पर भारी,
सत्य का वो एक बाण लाए हैं।

दिखावे के पाखंड से परे,
श्रद्धा के वो जुठे बेर खाने आए हैं।

प्रकृति रक्षा ही धर्म का सार है,
इस धरा को नवजीवन देने आए हैं।

मेरे घर राम आए हैं,
अपने संग वो मोहक मुस्कान लाए हैं।

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दिल की दिल में मत रखो,
जो बात है आज कह दो ।

कल को किसी के हो गए,
ना दिल रहेगा ना वो बात।

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तुम घूम आओ पूरी दुनिया,
शुकून तुम्हें घर में ही मिलेगा।

थोड़ा ठहराव के साथ देखो,
सुंदर नजारा पास में ही मिलेगा।

तुम बाहर कहां ढूंढ़ रहे हो,
अच्छा-बुरा सब तेरे अंदर ही मिलेगा।

जब चाहो आजाद हो सकते हो,
ताले की चाभी तेरे पास में ही मिलेगा।

मुनाफे का पर्दा उतार कर तो देखो,
हर कोई तुमसे ही ठगाया हुआ मिलेगा।

अंधों की तरह क्यों भागते हो विकास के पीछे,
हजार गुना विकास यहीं कहीं दबाया हुआ मिलेगा।

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28 DEC 2023 AT 23:57

मैं हास्य कविता लिखना चाहता हूॅं,
पर लिख नहीं पा रहा।

बेघर होते जीव-जंतुओं के क्रंदन में,
कैसे मैं हास्य लिखूं?

कटकर गिरते पेड़ों के मौन वेदना का,
कैसे मैं परिहास करूं?

धरती मां के चीर हरण को चुपचाप,
देखने को जो बाध्य है।

मैं उन कातर निगाहों की बेबसी को,
कैसे नज़र अंदाज़ करूं?

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26 DEC 2023 AT 23:35

नफ़रत की आग मत लगाओ "कैवल्य",
अगर फैल गई तो तुम भी जल जाओगे।

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26 DEC 2023 AT 23:06

दोनों चुप थे तो खुश थे, पर ;
लफ़्ज़ों ने मामला बिगाड़ दिया।

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