गर साज़िशें कोई करे
तो भी साफगोई से मिलो।
कीचड़ रहे अपनी जगह,
तुम कमल होना ही चुनो।-
बड़े शहर में
मत पूछो कि
कितने कमरे हैं
घर में।
पूछो सबकी एक
अपनी अल्मारी भी है क्या?
पूछो मत कि
खुद का घर है?
बस पूछो
सिर पर छत तो है!।-
बड़े शहर में
पूछो मत,
क्या कमाते हो?
पूछो
कुछ बचा पाते हो?।
ड्यूटी पूरी कर
दफ्तर से
निकलते हो समय पर?
मत पूछो!
पूछो! कभी समय पर
घर पहुँच पाते हो??-
प्रथम अवसर, तुम्हारे, अहसास बस बाकी,
न आवाज़ अब बाकी, न अल्फाज हैं बाकी।
तस्वीर इन आँखों में, तुम्हारी आखिरी तैरे,
लेटे हो चिता पर तुम, नहीं हैं साँस अब साथी।
पिता अखलाक देते हैं, पिता असवार देते हैं,
पिता अपने बच्चों पर, ज़िंदगानी वार देते हैं।
पिता भले एक खाट पर, लाचार दिखते हों,
वो अपनी एक नज़र से, बलाएँ टार देते हैं।
तुम थे तो फरिस्तों से, कभी कुछ भी नहीं माँगा।
फरिस्तों की मुफ़लिसी देखो, वो तुमको माँग बैठे हैं।।
*अखलाक- आचरण, असवार-साधन,
फरिस्ता-देवदूत, बला-बाधा, मुफ़लिसी-गरीबी।-
ग़मों की फेहरिस्त टाँकते रहें,
बार-बार फिर उसे बाँचते रहें।
एक क़तरा भी फर्क नहीं पड़ता,
अगर हम इस तरह जाँचते रहें।
उठो और स्याही फेर दो ग़मों पर,
चलो कुछ तो नयी शुरुआत करें।
क़तरे-क़तरे से फर्क पड़ता है,
समंदर ही की क्यों फिराक करें।
रास्ते गुमनाम, न दिखें मील के पत्थर,
चलते चलें बस, पहुँचने की न बात करें।
कौन मिलता है मंज़िल पर तन्हाई के सिवा,
मुसाफिर ही रहें, ठहरने की न आस करें।
कोई रहनुमा नहीं है, तेरे करमों के अलावा,
काम जो भी करें बस ज़रा लिहाज से करें।
रोशनी होगी ही सही, आफताब निकलेगा ही,
कितनी लंबी है ये रात, इस पर क्या बात करें।-
छत तो मिली नहीं, आसमाँ निगल गया।
वक्त चालबाज था, कुचल कर निकल गया।।
शक्ल पर ओढ़ कर, शक्ल किसी और की।
वक्त दिखा सामने, और तुरत बदल गया।।
रहनुमा बस एक ही थे, वालिद मेरे जहान में।
वक्त बेरहम मगर, जाँ उनकी न अता कर सका।।
संगीन ज़ख्म है मगर, मरहम भरेगा वक्त ही।
मगर वो मिलेगा क्या? जो अभी-अभी गुजर गया।।
स्व. श्री कमल कुमार जैन
(1-1-1948)- (1-5-2025)-
दिल में बसर करना और रुहों की फिकर करना।
घर लौटने का दिल हो, मिलने का जिकर करना।।-