मैं सिर्फ दो लोगों के सामने
अपना सर झुकाता हूं
एक जिसने मुझे जन्म दिया और
एक जिसने मेरे लिए जन्म लिया-
☝ मेरी रचनाएं स्वरचित मौलिक है। ये
कॉपीराइट के नियमों के अधीन है और
इनका ... read more
तू मेरी वजह से भूखी रहे
तू मेरी वजह से प्यासी रहे
मैं इतना बुरा तो नहीं।
सोलह श्रृंगारों में तू मेरी आरती उतारे
तेरी रूह को, तेरे जिस्म को
चांद के इंतजार में ठगता रहूँ
मैं कोई देवता तो नहीं।
मैं इंसान हूं मुझे जरूरत है।
तेरे साथ की, तेरे हाथ की
तेरे मीठे-मीठे बोलों की
तेरी नजरों में बसे सम्मान की
बस तू कुछ ऐसा कमाल कर दे।
अपनी मीठी मधुर वाणी से
और अपने पलकों में छुपाए हुए
प्रेम,बिरह,सम्मान और
इज्जत रूपी पंचामृत से
मेरा बारंबार अभिषेक कर दे।
फिर बस तू मेरा यकीन मान
ऐसे अनंत प्रेम में हम जितना जिएंगे
वह कई जन्मों से कम ना होगा।
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कागज के पुतलों रूपी
रावण को जलाने से जरूरी है।
उन रावण और विभीषण रूपी
विचारों का जलना
जो विचरण कर रहे हैं।
समाज के हर गलियारों में
और उससे भी जरूरी है
उन रावणों का जलना
जो सफेदपोश में समाज व
लोकतंत्र के दीमक बन बैठे हैं।
और भारत माता रूपी सीता का
हरण करने को आतुर है।
इसलिए हर व्यक्ति को राम बनना होगा
और समय आने पर अपने-अपने
विचार रूपी वाणों से देश में पनपती
लंकाओं का दहन करना होगा।
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घुल कर ना आए
चाय की प्याली में
तुम्हारे प्रेम का मिठास
मेरे प्यासे अधरों तक
तब तक तब तक............-
रात की धुन में गुनगुनाते हैं
हम तुम्हें
जुगनुओं के संग ढूंढते हैं
हम तुम्हें
इन पहाड़ों के पार
दूर क्षितिज तक
इस प्रकृति के जर्रे-जर्रे से
पूछते हैं। हम पता
हर मौसम में तुम्हारा
और एक तुम हो जो
रूठी रहती हो सपनों में
और शब्दों के रूप में चुपके से
उतर आती हो कविताओं में
पता पूछने पर कहती हो
पूछ लो उन्हीं शब्दों से
और उसी कलम से
जिससे निकले शब्दों के श्रृंगार से
सजी हुई कविताओं में
तुम मुझे पाते हो
तुम्हें मेरा एहसास होता है।
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हे! नींद तुम रूठो ना मुझसे
ये पलकें तुम्हारे वियोग में
तड़पती हुई आंखों के पानी से
अपनी बिराग्नि को बुझा रही है।
चैन पल-पल खो रहा है
ये चादर, बिस्तर, तकिया-वकिया
और शरारती सिलवटें सब
अब मेरे विरुद्ध हो गई है।
रात,चांदनी और तारों के संग
नागिन सी लगने लगी है।
ख्वाब तुम्हारा पता भूल रहे हैं।
कमरा, दीवारें, खिड़कियां और
रोशनदान सब खामोश है।
किताबें भी सब नाराज लग रहे है।
सपनों के किरदार भी अब
जोरो से द्वन्द करने लगे हैं।
दर्द अब पांव पसारने की कोशिश में है।
इसलिए हे! नींद तुम रूठो ना मुझसे।
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दुनिया की महंगी से महंगी इत्र की खुशबू से ज्यादा सुंदर होती है एक फूली हुई रोटी की महक
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अगर समाज में आप अपने आप को
अलग-थलग पाते हो, तो
समाज को दोषारोपण करने के बजाए
आप अपनी या अपने परिवार की गलतियों
को ढूंढना शुरू कर दो ताकि
समाज में आपका सामंजस्य बना रहे।
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तस्वीर ए हिंद
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तानाशाह, तानाशाही की
हदों को पार कर जमीं पर
काँटे और किलें उगा रहे हैं।
किसान उन्ही कांटों पर
तमाम फूल खिला रहे हैं
लहुलुहान लोकतंत्र
हलाल होकर सड़कों पर
लाचार बेबस चीख रहा है।
चौथा स्तंभ अपाहिज होकर
समाज को गुमराह कर रहा है
तोप,टैंक,बन्दूकें सब मौन है।
सियासतें बारूद उगल रही है।
राम नाम की हिटलरशाही
अब सड़क से संसद तक है।
पूंजीवाद के पैरों तले
समाजवाद रौंदा जा रहा है।
विकास, आदर्श, मूल्य अब
सब मूर्तियों तक ही सीमित है।
समता, समानता, अधिकार सब
संविधान के पन्नों में दम तोड़ रहे हैं।
सड़कें अब खेत बन चुकी है।
बेरोजगारी आग उगल रही है।
दूध की गंगा सूख चुकी है।
सोने की चिड़िया अब उड़ गई है।
बस काले कव्वे सफेदपोश में
तस्वीेर-ए-हिंद बयाँ कर रहे हैं।
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