राजेश सिंह  
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Joined 18 April 2018


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Joined 18 April 2018

रात हो गई है अब हर तरफ अंधेरा बिखर जायेगा
दिया जलाकर देखते हैं उजेला किधर तक जायेगा
अब तो निकल पड़े हैं अनजान से राह-ए-सफर में
सहर होगी तो देखेंगे ये सवेरा किधर तक जायेगा

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आंख का क्या है उसकी राह तकती रहती है
दिल का क्या है मेरा कहा मानता ही नहीं
जान पहचान भी उससे इतनी सी ही है
इतना ही जानता हूं कि उसे जानता नहीं

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ख्वाब देखें या संजोए कुछ समझ नहीं आता है
रात भर जागे या सोये कुछ समझ नहीं आता है
हां और न दोनों शामिल थे उसकी मुस्कुराहट में
अब हसें या फ़िर रोयें कुछ समझ नहीं आता है

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ये सितम क्या कम है कि मन मार के जीते है
उस पर ये ज़ुलम भी है क्यूं जी भर के पीते हैं
कोई तो बताये जाके उनको हाले दिल हमारा
पिलाते नहीं आंखों से इसलिए जी भर के पीते हैं

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क़िस्मत के फैसले पर जोर कहां चलता है
भला सूरज भी कहीं पश्चिम से निकलता है

रोज आईना देखकर मैं यही सोचता हूं
इतनी उदासी भी भला कौन यहां रखता है

किस बात पर हंसे हम किस बात पर रोये
कौन‌ सी बात बिगड़ जाये डर बना रहता है

इक उम्मीद थी तुमसे सो तुम भी पीछे हटे
टूटे दीयों में भला तेल कौन रखता है

मैं जो गिर गया तो कोई न उठायेगा मुझे
मतलब का हूं वो तभी तक सलाम करता है

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ओ पृथ्वी!
तुम जन्म से हवा‌ में लटकी हो
फिर भी तुम्हीं
हम सब का सहारा हो
कोई पालनहार
वहां ऊपर नहीं है
जिधर लोग इशारा करते हैं
तुम्हीं हम सब की पालनहार हो
पितृऋण… मातृऋण… से उबरने का उपाय है
पर पृथ्वीऋण… से उबरने का
शास्त्रों के पास भी कोई उपाय नहीं है
ओ मेरी प्यारी पृथ्वी!
हम सब की पालनहार
आज तुम्हीं और सिर्फ तुम्हीं मेरी कविता हो

(पृथ्वी दिवस की शुभकामनाएं….)

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दुःख मापने की मशीन नहीं बनीं
होती तो वो भी त्राहिमाम कर देती
दुःख भी बाढ़ की तरह आता है मेरे जीवन में
और नख-सिर तक डुबाकर चला जाता है
जो चाहा वो मिला नहीं
जो मिला कभी चाहा नहीं
मेरा काम मुझे पसंद नहीं
जो पसंद उसके लिए समय नहीं
मीठा पसंद है तो खानें की मनाही है
तीखा पेट के अनुकूल नहीं है
सब कुछ ससमय चलता है
पर समय जब आता है तब समय साथ नहीं देता
जिससे भी प्रेम हुआ मेरी न हुई
दिल की हसरत कभी पूरी न हुई
कई वर्षों से जिसे सुख कह सकते हैं नसीब नहीं हुआ
हालात ये है कि जीने के लिए दुखों में से
थोड़ा थोड़ा सुख निचोड़ता रहता हूं
किसी शायर ने शायद मेरे लिए ही कहा है
“खुदा ने सारे जहां का ग़म बटोरकर
जब कुछ न बन सका तो मेरा दिल बना दिया”

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जब से होश संभाला तब से खोज रहा हूं
मैं क्या आप सब कुछ न कुछ खोज रहें हैं
खोजते खोजते एक दिन दरबार स्क्वायर पहुंच गया
हिमालय वहां से पास में था
इतना कि हाथ बढ़ाकर छू सकता था
भाग्य में जो है वही मिलेगा
जितना हाथ बढ़ाता था
हिमालय उतनी दूर सरक जाता था
आज भी उदासी का दस्तूर जारी है
मैं जितना कदम आगे बढ़ाता हूं
उसके कदम उतने ही पीछे सरक जातें हैं
खोज तो पूरी हुई पर चांद की अपनी मर्जी है
उसकी इच्छा उगे न उगे दिखे न दिखे
बोलें न बोलें हंसे न हंसे...
मैं ही पागल हूं रोज छत पर इंतजार करता हूं

(दरबार स्क्वायर काठमांडू में है)

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यादें टाइम मशीन होती है
पलक झपकते ही भूतकाल में पहुंचा देती है
छवियां हमेशा यादों की गवाह बनती हैं
वक्त तेजी से पीछे सरकता है
और छवि के ईर्द-गिर्द गोल गोल चक्कर लगाता है
उम्र उतनी‌‌ ही छोटी हो जाती है
जितनी पुरानी याद
चाहता हूं साथ बिताए इन पलों को
एक-आध यादगार छवियों में कैद कर लूं
ताकि बाद के वर्षों में जब भी तुम्हारी याद आये
छवि के सहारे मैं वापस लौट सकूं उसी वक्त में
और खूबसूरत लम्हों को एक बार फिर से जी सकूं...
मैंने कुछ ज्यादा तो नहीं मांग लिया....

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बचपन से लिखने का शौक था
खासकर शब्दों से खेलने का
भावाभिव्यक्ति का यही तरीका मुझे आता है
भाव की चाशनी में लपेटकर
रोज एक शब्द उछाल देता हूं उसकी ओर
शब्दों से एक दिन विस्फोट होगा दिल में
प्रेम ज्वालामुखी की तरह पिघलकर बहेगा
जिसकी आंच मुझे जीने का हौसला देगी
कहते हैं—विस्फोट ही ब्रह्माण्ड के होने की वजह है
मुझे यकीन है कि—
प्रेम की उत्पत्ति का कारण भी विस्फोट ही है

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