राजेश "बनारसी बाबू"   (राजेश "बनारसी बाबू")
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Joined 25 May 2017


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Joined 25 May 2017

मौसम,

" जब तुम अपनी ज़ुल्फें झटकती हो,"
लगता है जैसे हर पल मौसम बदलती हो।
चाँद भी जल उठे, जब तुम सँवरती हो,
क़ातिल निगाहें, हुस्न में खंजर रखती हो।

कहाँ छुपा रखती हो ये कातिल अदा,
लगता है जैसे कोई दुल्हन निखरती हो।
तबीयत बेक़रार हो जाती है उस वक़्त,
जब यूँ ही अचानक से तुम पलटती हो।

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"पापा... कहीं पीछे छूट गए हमसे"**

सपनों का पीछा करते-करते, न जाने कहाँ आ गए हम,
अपनी ही व्यस्त दुनिया में, पापा को पीछे छोड़ आए हम।
समय को मैनेज करने में, उनको वक़्त ना दे पाए हम,
अपनी ख्वाहिशों की दौड़ में,पापा का चश्मा भूल आए हम
ऑनलाइन में उलझे रहे,उनके हालात पर न ध्यान दे पाए हम
वो दर्द से कराहते रहे, उन्हें कहाँ सुन पाए हम
हम अपने राग अलापते रहे,पर उनकी चुप्पी न सुन पाए हम।
उन्होंने एक ही कमीज में साल बिताया
और हर महीने फरमाइश लगाए हम
हम हर रोज़ उन्हें अनदेखा करते ,और आज फादर डे मनाए हम

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"पापा... कहीं पीछे छूट गए हमसे"**

सपनों का पीछा करते-करते, न जाने कहाँ आ गए हम,
अपनी ही व्यस्त दुनिया में, पापा को पीछे छोड़ आए हम।
समय को मैनेज करने में, उनको वक़्त ना दे पाए हम,
अपनी ख्वाहिशों की दौड़ में,पापा का चश्मा भूल आए हम
ऑनलाइन में उलझे रहे,उनके हालात पर न ध्यान दे पाए हम
वो दर्द से कराहते रहे, उन्हें कहाँ सुन पाए हम
हम अपने राग अलापते रहे,पर उनकी चुप्पी न सुन पाए हम।
उन्होंने एक ही कमीज में साल बिताया
और हर महीने फरमाइश लगाए हम
हम हर रोज़ उन्हें अनदेखा करते ,और आज फादर डे मनाए हम

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"पापा... कहीं पीछे छूट गए हमसे"**

सपनों का पीछा करते-करते, न जाने कहाँ आ गए हम,
अपनी ही व्यस्त दुनिया में, पापा को पीछे छोड़ आए हम।
समय को मैनेज करने में, उनको वक़्त ना दे पाए हम,
अपनी ख्वाहिशों की दौड़ में,पापा का चश्मा भूल आए हम
ऑनलाइन में उलझे रहे,उनके हालात पर न ध्यान दे पाए हम
वो दर्द से कराहते रहे, उन्हें कहाँ सुन पाए हम
हम अपने राग अलापते रहे,पर उनकी चुप्पी न सुन पाए हम।
उन्होंने एक ही कमीज में साल बिताया
और हर महीने फरमाइश लगाए हम
हम हर रोज़ उन्हें अनदेखा करते ,और आज फादर डे मनाए हम

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हादसा,

सोचा न था ऐसी तबाही आएगी,
लोगों की ज़िंदगी पल में मौत बन जाएगी।
चीखें हैं, रोना-धोना, छाया कोहराम है,
बिन बुलाए आई मौत, कैसा ये पैगाम है।
हादसा था वो बेहद दर्दनाक,
मौत का मंज़र था बेहद ख़तरनाक।
थाली की रोटी भी अब ये कह रही,
मलबे में दबी लाशें चुपके दर्द सह रही।
रोंगटे खड़े कर रहा ये हाल है,
लावारिस पड़ा हर शव पूछता सवाल है।
कफ़न में लिपटी ज़िंदगी की पहचान,
हादसों की देन है ये रक्तरंजित मकान।
241 जानें इस प्लेन ने निगली,
कितनी मासूमियाँ मौत में पिघली।
इस कठिन घड़ी में मेरी संवेदनाएँ,
दिल से निकलीं व्यथा की व्याख्याएँ।
कैसे करूँ इस गहरे संकट की विवेचना?
हर आँख में बसी है मौन करुणा की वेदना।

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किस्मत,

अहमदाबाद में छाया हुआ कोहराम है,
अस्पताल भी अब जैसे कोई शमशान है।
विमान दुर्घटना ने छीनी सबकी जान है,
लगता है किस्मत का यही पैग़ाम है।

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ठोंकर,

ठोकरों ने राहों पे चलना सिखाया है,
असफलताओं ने अंदर से मजबूत बनाया है।
किन्नर होना मेरी कमजोरी नहीं,
ये सच तो दर्पण ने मुझे बताया है।
अब वर्दी पहनकर सबको दिखाया है,
मैंने भी सपना सच करके दिखाया है।

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दिखावा,

वास्तविकता है या बस एक दिखावा है,
विवाह है या कोई छलावा है।
रकीब की हसरत में शौहर का क़त्ल कर डाला है
लिहाज़ा, कैसे यकीन करें अब इन रिश्तो पे
जब अपनों ने ही मौत के घाट उतारा है।

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नारी शक्ति,

छिपकली से डरने वाली, तुम दुर्गा बन जाती हों
हर गम को सहने वाली, तुम कैसे मुस्कुराती हों
अपना निवाला मुझे खिला के, तुम भूखे सो जाती हों
रूप तुम्हारे अनेक है नारी, तुम नारी शक्ति कहलाती हों

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बरसात,

तेरी मोहब्बत में है कमी, तुम बिन है सांसे थमी थमी
तेरे झूठे कसम ए वादे , लगता फिर से मै ठगी- ठगी
परदेस जाके सजना मेरा, टेलीफोन करें क़भी क़भी
बरसात बनी है मेरी सौतन, अँखियाँ हों गई नमी नमी

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