मन कुछ ठहर गया, उलझी बातों के साथ
रातों की नींद गई और बीत गई सारी रात-
ख्वाहिशें और इंसान दोनों बचे रहते हैं
है अमावस की रात टली
ज़िंदगी में थोड़ी रौशनी आने दे
जग में क्या क्या न ढूँढा
ख़ुद को ख़ुद से मिल जाने दे
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चारों ओर धुँध सही
आँखों को साफ़ रहने दो
है बस एक ज़िंदगी
ख़ुद के ही नाम रहने दो-
कुछ ज़िंदगी को भी,
मरहूम रहने दे
चल मुसाफ़िर बन,
मंज़िल जरा दूर रहने दे
जो हासिल हो,
फिर क्या तेरा, क्या मेरा
ख्वाहिशें अधूरी सी,
उसे भी ख़ुद में मौजूद रहने दे-
कुछ ज़्यादा आरज़ू
ऐ ज़िंदगी नहीं है तुझसे
ग़र मंज़िल मुकम्मल ना हो
तो सफ़र खूबसूरत रखना-
मांगू रब से फ़रियाद
तेरे बाद मेरा नाम आए
सफ़र में तू साथ रहे
हाथों में तेरा हाथ आए-
जल जंगल ज़मीन बचे
दबी रहे माँ धरती का संताप
आदि से अनंत रहे
प्रज्वलित रहे प्रकृति का प्रकाश
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अपनों के लिए ख़ुद को बदलने की ज़रूरत नहीं है
लेकिन औरों के लिए ख़ुद को बदलने की ज़रूरत है-
ताउम्र इतराता रहा
जो कुछ काग़ज़ के ढेर पे
तिल्ली मुस्कुरा बैठी
फिर काग़ज़ को देख के-