राहुल पाण्डेय (राही)  
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Joined 15 April 2018


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Joined 15 April 2018

यूं तो तेरी हर खामोशी से भी खुश रह जाता हूं
गुजारिश है कुछ तुम भी बोला करो
गिले - सिकवे हों तो बताना तुम भी
ये खामोशी अक्सर दूरियां बन जाती हैं

जो मिलना होगा तो मिलेंगे जरूर
तुम चाहे तिलिस्म की रानी बन जाना
तसव्वुर में हर वक्त हो तुम
तुम चाहो अंगणत कई कहानी बन जाना

कहते हैं दिल से चाहो तो हर मुराद पूरी होती है
अब परीक्षा मेरे इश्क की भी हैं
तुमने चाहा तो उत्तीर्ण करूंगा सिद्दत से
तुम चाहो तो मुद्दतों तक याद बन जाऊ मैं

यादें ज्यादा नहीं है हमारी
फासले हैं ,चांद तारों जैसी जिंदगानी है
तुम कहो तो मिशाल बन जाए ज़माने के लिए
जैसे सूरज और चंदा की कहानी हैं

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आज फिर याद आए तुम
स्कूटर चलाना तुम्हारा और पीछे मै
शहर से पहाड़ का वो छोटा सा सफर
वो दिन तुम और तुम्हारा साथ
आज फिर याद आए तुम
जैसे भीगी बरसात में वो रेत हो
वो खुशबू जैसे सब कुछ उड़ा ले गई
ठीक वैसे आज फिर याद आए तुम
यूं तो साल बीत गए उस बात को
पर तुम्हारी बातें जैसे कल ही की हों
हर सांस में जैसी बसी तुम हो
आज फिर याद आए तुम
बेशुमार याद आए तुम

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मीठी गुजिया सी आपकी जिंदगानी हो
रंग बिरंगे गुलाल सी कहानी हो
खिल उठे जीवन खुशियों की पिचकारी से
मंजूर हर- दिल-अजीज की जुबानी हो

रंगो के त्योहार की अनेकों शुभकामनाएं🙏

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आने वाले साल फिर से , कई वादें करेंगे खुद से
कुछ बातें तो होंगी पूरी , कुछ रहेंगी आधी अधूरी
जश्न मनेगा नए साल का , नई उमंग साथ जुड़ेंगी
नई आस से दिन बनेगा , नई उम्मीदें फिर जगेंगी

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तुमसे मिलने की चाह में यह साल भी गुजार दिया ..
ए - आने वाले साल कुछ रहम करना मुझपर ।

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मुकम्मल होती 'मोहब्बत' में दुआओं का असर होता होगा जरूर..
मंदिरों में अर्जियां लगाने वालीं नस्लें अब कहां ।

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कुछ उन्हें पसंद नही तो हामी भर लेता हूं
अपने ख्वाबों को इस कदर रख देता हूं
अपनी हां में भी उनकी ना मिलाकर देखी
हर जगह यूं अपने ख्वाब खो देता हूं

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बचपन का वह बस्ता जिसमे चार किताब दोस्त की हुआ करती थी और दो मेरी ,
आज किताबें तो बहुत रखी है पर वह बस्ता ,वही दोस्त कहीं गुम से हो गए हैं

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आओ मिलकर जश्न मनाए ,यारो सभी आजादी का
हर घर तिरंगा खूब लहराए , जान है भारतवासी का

शान इसकी ढलने न देना , गगन चुम्बी फहराएं
गूंज उठे जब गली-मोहल्ला, मान इसका बढ़ता जाए

बतला देना गद्दारों को , भारत देश की एकता
प्रेम ,प्यार, समर्पण से ,भाईचारे की विशेषता

यूंही नही पाई आज़ादी, हर-घर से लहू बहा था
घर-घर में वीर सपूत थे , हर घर ने नर्क सहा था

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इस बरसात को जरूर कोई याद आया होगा ..
बिन बात के कोई इतना बरसता है भला ?

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