हर बात का कोई ना कोई कारण होता है,बिना कारण यहाँ कुछ नहीं होता । हमारे कर्म हमें यहीं भोगने होते हैं, पश्चताप का कड़बा जहर पीना पड़ता है। सब कुछ एक पल में नहीं होता, धीरे धीरे कड़ियाँ जुड़ती है, हम भूल जाते हैं पर कड़ियाँ हमें नहीं भूलती, हमारे धागे जो हमने बुने हैं, जाल बन जाते है और धीरे धीरे ज़ब इनकी जकड़ बढ़ने लगती है तो हमें सब कुछ साफ दिखने लगता है। एक डरावना सच जिसे भूलने की और टालने की पुरजोर कोशिश करते हैं लेकिन सफ़ल नहीं हो पाते। हर रात हम यही सोच कर सोते हैं की कल सब ठीक होगा लेकिन बात हाथ से निकल जाती है, और हाथ में पश्चताप के आलावा कुछ नहीं रह जाता। सब कुछ रेत की तरह फिसलता जाता है, समय निकलता जाता है।
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कितने भावों , कितने अनुभवों को
निचोड़कर स्याह करना पड़ता है,
फिर कही... read more
हाथों में तेरा हाथ रहे
होठों पर तेरी ही बात रहे
और दुआओं की सौगात रहे।
तू दूर रहे या पास रहे
बस तेरा ही एहसास रहे
तेरे बिन जीना जैसे सूनापन
तेरा साथ जैसे हर सांस रहे ।
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राजन गॉव से शहर लौटा तो पश्चाताप से मन का बोझ बढ़ता जा रहा था , वो बार बार यही सोच रहा था की क्यों गया वो शहर. क्या दिया इस शहर ने उसे, एक रोग के सिवा कुछ भी तो नहीं. आज भी वो वहीं खड़ा है जहाँ पांच साल पहले था. रोग से उखड़ती सांसे,झुके कंधे और मन में भविष्य की चिंता लिए वो बस खिड़की से दूर पेड़ों के झुंड को देखता , जो बस की गति के विपरीत कहीं ओझल हो जाते।
समय की गति के साथ वो भी तो नहीं चल पर रहा था, क्या सब कुछ वैसा का वैसा नहीं हो पायेगा कभी.शायद अब बहुत देर हो गयी है, इसी पश्चाताप के साथ जीना उसकी नियति बन गयी है.
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एक दिन सब बिखरा हुआ
बेसुध, बेचैनी से भरा हुआ
कुछ टूटा, कुछ मिट चूका
सब कुछ ठीक हो जाता है
धीरे - धीरे अपनी वास्तविक स्थिति में लौटता
समय का पहिया ज़ब किसी स्मृति से टकराता है तो
एक आह सी उठती है,जो सुख की होती है
एक उमंग सी उठती है, जो आत्मा को तृप्ति देती है
एक दिन शांति, सुकून
धीरे से आपके दमन में आ गिरता है
और खिल उठता है, चमक उठता है
जैसे ओस की बूंदो पर किरणे चमकती है
सुबह - सुबह।
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ढूंढता है दूरी
और कभी न ख़त्म होने वाला एकांत
दुबिधा में पड़ा इंसान
हमदर्दी नहीं चाहता
वो चाहता है केवल खामोशी
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बार बार उसी मोड़ पर आकर खडे हो जाने का मतलब क्या है? कौन है जो आगे नहीं बढ़ने दे रहा?
हर तरफ़ जिधऱ भी नज़र जाती है सब वैसा का वैसा दिखाई दे रहा है, जैसे पहले कभी दिखाई दिया था।
ऐसा लग रहा है जैसे कुछ नहीं बदला, लेकिन सब कुछ बदल गया है। सबकुछ बदलने के बाद सबकुछ वैसा का वैसा होने का मतलब क्या है?
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जाने कुछ समझ क्यों नहीं आता
जाने सबकुछ होते देखना ही हमारी नियति है
हज़ारों सवाल है मन में मगर
सब के सब उलझें हुए क्यों हैं
क्यों शब्द नहीं निकले ज़ब इन्हे निकलना था
जाने मुझमे इतनी गहराई क्यों है
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भजन - कीर्तन मैं करूँ और नवाऊं शीश
मैं मूरख अज्ञान हूँ कृपा करो जगदीश
हर हर बोलूँ महादेव की क्या मांगूँ आशीष
सब कुछ तुमने दे दिया रही न कोई टीस।
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