हवा का झोका अभी -अभी
छूकर गया मुझे।
कुछ कह गया वो बातें
जो अक्सर तुम कहती थी।
जब कभी तुम रूठ जाती थी
मै तुम्हारी मनुहार करता
मै रूठ जाता कभी तब
तुम मनुहार करती थी मेरी।
और अब,
अब कोई नही है जो
मेरी मनुहार करे।
तुम अपने पीछे छोड़ गई हो
सुनापन और विरान जहां।
जिसमें खोजा करता हूं मै
तुम्हे और तुम्हारी स्मृतियां।
तुम्हें और तुम्हारी स्मृतियां।🌹-
मै चांद तुम चांदनी
तुमसे मै मुझसे तुम
दोनो हैं बिलकुल
एक दूजे के साथी।-
सुना है तुम्हे भी मोहब्बत हुई थी
पर मोहब्बत निभाना जरूरी नही समझा।-
तुम क्या गए अकेला कर हमें
जीवन ही नीरस हो चला है।
मेरी कलम भी अब रोशनाई
नही बिखेरती है।
जीना है इसलिए जी रहे है
लेकिन वो उत्साह नही जीने में।
एक अनजान राही की तरह
भटक ही रहा हूं अब मैं।
ना राह का पता ना मंजिल का
चलते चला जा रहा हूं अब मैं।
तुम क्या गए अकेला कर हमें-
दास्तां कब भी अपने को दोहराती है
फिर मसला वही पुराना आ जाता है।
जख्म है के भरते हो नही
फिर नए जख्म तैयार हो जाता है।
दास्तां अपनी भी कुछ ऐसी ही है
जैसे दोस्त अख़्तर ने कह सुनाई है।
जाने वाले तो नए सफर पर चले जाते है
साथ हमारे तुम्हारे यादों का गुलिस्तां दे जाते है।
रंज ना कर कभी ए दोस्त वो भी हमारे अपने थे
बस दुआ कर वो जहां भी हो सकूं और अमन से हो।-
तिनका-तिनका बिखरती
रही तुम
और मुझे इसका भान तक नही।
दिन बीते सप्ताह बीते महीने
और अंत में वर्ष के वर्ष बीते।
सब कुछ आत्मसात् करते तुम
जिन्दगी से अबूझ युद्ध लड़ते रही।
जीवन का सारा हलाहल पी
तुम खुद को सताती रही।
मान -मर्यादा, समाज, औरों
के सुख की खातिर स्वयं को
संघर्ष ज्वाला में झोंक चुकी।
एक बार ही मुझे तो पुकार लेती
मै भी इस यज्ञ में हिस्सा लेता।
तुम संग अपनी आहुति देकर
मै स्वयं को उपकृत समझता।
लेकिन दोष तुम्हारा कुछ नही
मै ही अपने को दोषी पाता हूं।
पुरुष हूं, मुझे ही जतन करना था
तुमसे किसी तरह मिलना था।
मै अपनी ही धुन में खोया रहा
तनिक भी ख्याल ना रख पाया।
जब तक तुम्हें सुख - चैन ना मिले
स्वयं को दोष मुक्त ना समझूंगा
दोष मुक्त ना समझूंगा।-
मित्रों अभी तक हम जीवन के प्रमुख
उद्देश्यों में धर्म, अर्थ और काम पर
चर्चा कर चुके है।
आज हम अंतिम उद्देश्य
मोक्ष पर चिंतन कर रहे है।
मोक्ष ही जीवन का या मनुष्य योनि
(रूप)में जन्म लेने का प्रमुख
एवं महत्वपूर्ण उदेश्य है।
आगे "अनुशीर्षक" में पढ़िए-
हक
क्या हक है? मेरा तुम पर
कुछ भी तो नही बनता है
तुम पर हक मेरा।
आगे "अनुशीर्षक"में पढ़िए-
हक
क्या हक है? मेरा तुम पर
कुछ भी तो नही बनता है
तुम पर हक मेरा।
आगे "अनुशीर्षक"में पढ़िए
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