“रेत का शहर”
कभी कभी लगता है,
जैसे मैं,
रेत के
एक वीरान शहर में खड़ा हूँ।
पुनीत अग्रवाल-
बुराई में अच्छाई
काले घन में ज्यों दामिनी दमके,
तम की रजनी में उषा भी चमके।
काँटों के मध्य ही सुमन खिलता है,
पत्थरों में जल निर्मल मिलता है।
तपकर ज्वाला की भट्टी में कुंदन,
निखर बनता स्वर्णिम उसका तन।
कड़वी सी नीम भी गुणकारी होती,
सीप में ही तो है मोती की ज्योति।
गरल में अमृत का वास छिपा है,
निराशा के तम में आस छिपा है।
जैसे पतझड़ के बाद बहार आए,
अंधेरों में चंद्रमा राह दिखाए।
जब जब भी बुराई सिर उठाए,
पीछे उसके भलाई मुस्काए।
है बुराई के भीतर उजियारा,
ढूँढ ले जो भी, उस का जग सारा।
पुनीत अग्रवाल-
(आसन्न चुनाव के परिप्रेक्ष्य में)
अथ श्री मोदी नम:
तुम जो चाहो वह पढ़वाओ, है कोर्स तुम्हारे हाथों में,
मीडिया और प्रेस तुम्हारी है, हर सोर्स तुम्हारे हाथों में।
विरोध भले कितना कर लूँ, या तुमको बेपर्दा कर लूँ,
ईडी और कोर्ट तुम्हारे हैं, है फोर्स तुम्हारे हाथों में।
हर प्रश्न को तुमने सेट किया, परचा भी तुमने बांचा है,
अब देना उत्तर पर नंबर, या क्रॉस तुम्हारे हाथों में।
मैं सबसे अच्छा बैटर पर, यह पिच, हर बॉल तुम्हारी है,
तुम तो खुद ही अंपायर हो, है टॉस तुम्हारे हाथों में।
हर युद्ध तुम्हारी रचना है, हर अस्त्र तुम्हारा ही सेवक,
मैं तो निर्देशित सैनिक हूँ, विन-लॉस तुम्हारे हाथों में।
चाहे कितना ही मन कर लूँ, हूँ आदेशों के बंधन में,
डमरू पर करतब दिखलाऊँ, बिग बॉस तुम्हारे हाथों में।
टिकट लिए प्रत्याशी हूँ, है जनता मेरे साथ मगर,
आयोग तुम्हारा चाकर है, जयघोष तुम्हारे हाथों में।
पुनीत अग्रवाल-
यह ध्येय नहीं सब सपने पूरे कर पाऊँ मैं
जब मृत्यु हो तो स्मृतियों के संग जाऊँ मैं
© पुनीत अग्रवाल-
काश टूटे हुए दिल की ये कहानी तो रहे
न इबारत में सही पर ये ज़बानी तो रहे
ये मेरे ज़ख़्म न भर जायें ज़रा ध्यान रहे
जो भी खोया है कोई उसकी निशानी तो रहे
© पुनीत अग्रवाल-
चित्त में हो धर्म ध्वजा, आचार में संस्कार हो,
असत्य क्रोध द्वेष लोभ, नष्ट सभी विकार हो,
विभिन्नता में एकता का दृष्टान्त दिया राम ने,
सत्यनिष्ठ रामोचित ही व्यवहार हो विचार हो।
© पुनीत अग्रवाल-
उपवन में जन्मे हैं जो वो पुष्पों की कीमत क्या जाने
आँखों में जिनके सूरज हो दीपों की हिम्मत क्या जाने
जिनको सब कुछ ही मिल जाता हो घर बैठे दुकानों से
वे छाया फल देने वाले वृक्षों की रहमत क्या जाने
जिनकी जिह्वा पर सरगोशी मन में हो कालिख की शीशी
वे मासूमों के दामन पर धब्बों की तोहमत क्या जाने
हर रोज़ अलग शाखों पर जो रहने को जीवन समझे हैं
आजीवन एक उस प्रीतम की बाँहों की आदत क्या जाने
कपड़ों पर मिट्टी लगने से जिनको परेशानी होती हो
उखड़ी साँसों की, बूँदों की, काँधों की मेहनत क्या जाने
© पुनीत अग्रवाल-
इच्छा छूटी, प्रतिमा फूटी, और टूट गया प्रत्येक भरम,
अपने होते विलग सभी, थकते गिरते निस्तेज कदम।
रिश्ते नाते, नारी-बच्चे, कितने क्यों कैसे सम्बन्ध,
सपनों के प्रासाद रेत के, निष्ठा के झूठे अनुबन्ध।
जीवन की गठरी को लादे, जब पथिक हो गया क्लांत,
उत्साही काया अस्ताचल, अब तो मन खोजे विश्रांत।
कर ले तैयारी चलने की, अब त्यागो मन बंधन की डोर,
अंधेरों को अपनाओ अब, इस तम से ही निकलेगी भोर।
मौत नहीं है अंत अरे मन, एक नव संस्करण, पड़ाव है।
आत्मा के शाश्वत जलधि में, ये नूतन जीवन की नाव है।-
बेहतर होगा कि तुम इन्हें सब बता ही डालो
वरना ख़ामोशी के मायने निकाल लेंगे लोग,
ये खुश्क आँखें, वीरां दिल, बुझा हुआ चेहरा,
इस राख में से भी चिंगारी खंगाल लेंगे लोग।
पुनीत अग्रवाल
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जो निभते हों सहज सही,
हैं सुखद होते रिश्ते वही,
जो निभाने की हो लाचारी,
वह होती है दुनियादारी।
✒️ पुनीत अग्रवाल-