मैंने कविताओं से उनके अयोग्य पात्र हटा दिए हैं खंडहर की भाँती निर्जन ,वीरान सी खड़ी दिखती हैं तकती है कातर नेत्रों से पूछती है अपना अपराध पर नहीं माँगती न्याय, भाव जो पात्रों से सार्थक थे निष्प्राण पड़े हैं अंतिम संस्कार की प्रतिक्षा में और मैं विवश.. सारे कर्मों …. विकर्मों मूढ़ताओं व्यथाओं और अपमान से पूर्ण मुक्ति हेतु.... अनिवार्य है.… मृत्यु।
हम उस दौर के बंदे हैं जहाँ बातों में मतलब हैं और मतलब की बातें हैं लतीफ़ों में हक़ीक़त है हक़ीक़त भी लतीफ़ा है किसी के हिस्से की ज़िल्लत किसी का शोहरती वज़ीफ़ा है।
नाज़ुक दिली जज़्बात कभी थककर सफ़र में रुक जाते हैं कभी दिमाग़ की तेज रौशनी से घबराते हैं डरकर ओट ले छुप जाते हैं लाख सोचकर जाते हैं चाहकर भी हम सब कुछ कहाँ कह पाते हैं।
कभी वीरों का यशगान किया कभी बलिदानों से रक्त-रंजित हुई!! कभी संतप्त हृदय की धार बनी कभी भाव विह्ल हो हर्षित हुई!! कभी क्रांति का स्वर बनी कभी विवशताओं में झँकृत हुई!! कभी दृष्टिगत रही मात्र कभी आत्म समाहित हो सुरभित हुई!!