सबको यहाँ हिन्दू -मुस्लिम ही बनना है तो सेक्युलरिज़्म का आचार डाल देते हैं हम... संविधान के बरनी में 🙄
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उधेड़ कर दुबारा बुन
रही हूँ...
कभी वीरों का यशगान किया कभी बलिदानों से रक्त-रंजित हुई!!
कभी संतप्त हृदय की धार बनी कभी भाव विह्ल हो हर्षित हुई!!
कभी क्रांति का स्वर बनी कभी विवशताओं में झँकृत हुई!!
कभी दृष्टिगत रही मात्र कभी आत्म समाहित हो सुरभित हुई!!
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प्रेम कभी आपको वो नहीं
रहने देता जो आप होते हो..
स्वयं से इतनी दूर ले जाता है
यथार्थ और इच्छित का अन्तर मिट जाता है
चेतना घोर निद्रा में सो जाती है
और स्वप्न का संग रह जाता है केवल
ना जाने कितनी वर्जनायें लांघती है
न जाने कितने मिथ टूटते हैं
अपने ही मिथों के टूटने पर
विस्मय और विषाद उत्पन्न नहीं होता
हर्षानुभूति होती है
वर्जित फलों को चखती स्त्रियाँ
अत्यंत सुंदर प्रतीत होती हैं।।
आदर्श, इच्छितो से इस अनवरत संघर्ष में
हार जाता है
जीत की चाह नहीं
पराजय की गुप्त आकांक्षा रखती
प्रेमरत स्त्रियाँ...
कितनी विचित्र प्रतित होती हैं।
ऐ भी सत्य है!
प्रेम हमें विचित्र बनाता है।
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स्वयं से पराजित व्यक्ति
कितना दुर्बल हो जाता है
कदाचित तुम्हें ज्ञात नहीं
मैं असमर्थ रही समझ पाने में
इस सत्य को कि
प्रेम एक यज्ञ है।
एवं आहुति अनिवार्यता...
देनी होंगी
अपने सम्मान कि आहुति
भोगनी होगी
मर्यादा उल्लंघन की भयावह परिणति
जीवनपर्यंत!
अपनों के नेत्रों में तिरस्कृत रहना
अपने ही आँगन में बहिष्कृत रहना
जीवनपर्यंत-
अबकी आओ तो थोड़ी धूप बाँध देना मेरे आँचल में
मन के मौसम
भीगे और उदास रहते हैं 💝-
जा रही हूँ लेकर
अपनी सारी दुर्बलताएँ
मालिनताएँ
तुम्हारे सारे आक्षेप
सारी शंकाएँ
विदाई सी इस तीर्थ यात्रा पर
विसर्जित करने,
क्योंकि
पुनः
मिलना है परिष्कृत, परिमार्जित से 'हम' को
इस प्रेम में
मृत्यु के पहले।-
मैंने कविताओं से उनके अयोग्य पात्र हटा दिए हैं
खंडहर की भाँती
निर्जन ,वीरान सी खड़ी दिखती हैं
तकती है कातर नेत्रों से
पूछती है अपना अपराध
पर नहीं माँगती न्याय,
भाव जो पात्रों से सार्थक थे
निष्प्राण पड़े हैं
अंतिम संस्कार की प्रतिक्षा में
और मैं विवश..
सारे कर्मों ….
विकर्मों
मूढ़ताओं
व्यथाओं
और अपमान से
पूर्ण मुक्ति हेतु....
अनिवार्य है.…
मृत्यु।
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