रुकती है जब भी कलम तो अन्याय बोलता है
मनुजता को तराजू में रख अहंकार तोलता है
उधेड़ दिए जाते हैं जब सामाजिक ताने बाने
शांत से कवि के कलम का स्याही खौलता है।।
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दुनिया भूल जाती है अहमियत इस अंधेरे की
गर होती न रात तो चाँदनी के उजाले न होते ।
विज्ञान के चमत्कारों का भरोसा भी है कितना
होता न आफ़ताब तो इनके भी फ़ैसले न होते।।
इक़ इक़ पल गुज़रा है तो आया है वक़्त नया
ठहर जातीं गर घड़ियाँ बुरे वक़्त से फ़ासले न होते
आते हैं जब अँधेरे तो साथ ताक़त भी कई लाते हैं
गर होतीं न उलझनें तो फिर ये हौसले भी न होते।।
अकेलेपन का अंधेरा सही गलत का समझ देता है
इन मजलिसों में कभी कोई सही फ़ैसले न होते
नज़दीकियां ये हर शय से कहाँ ठीक है रजनीश
महज़ कहकशे होते खामियों के तबादले न होते।।
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न उम्मीद अब न कोई चाह ही रही ।
हमारे दरमियाँ अब वो बात न रही ।।
धुँधली सी कुछ यादें बाकी हैं लेकिन।
ख्वाबों में अब वो मुलाकात न रही।।
दायरा बे-तकल्लुफ़ी का कम हुआ इतना।
तेरी तकल्लुफ़ में भी वो जज़्बात न रही।।
पाक़ उल्फ़त में हुआ तिज़ारत शामिल ऐसे।
मोहब्बत की कोई नई शुरुआत न रही ।।
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ज़ख्म बहुत हैं गहरे मेरे भरने में वक़्त लगेगा ।
मैं भी हो सकता हूँ तुम सा होने में वक़्त लगेगा।।
इन रिश्तों में जो गाँठ पड़ी है खुलने में वक़्त लगेगा
तुमने तोड़े जनम के बन्धन जुड़ने में वक़्त लगेगा ।।
कितनी जल्दी तुमने मुझको गैर का दर्जा दे डाला
मैं भी बेगाना कह दूँ तुझको कहने में वक़्त लगेगा ।।
मेरी उम्मीदों की धार तो देखो दरिया को भी रोका है
समंदर आँखों में भरा पड़ा है बहने में वक़्त लगेगा।।
यादों ने तेरी इन ज़ख्मों को हर रोज कुरेदा है लेकिन
हरे भरे हैं ज़ख्म ये मेरे इनको भरने में वक़्त लगेगा।।
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अरसे से रुकी कलम ने आज यह बात कह दिया
लम्हे ने करवट बदली तो दिन को रात कर दिया
है वक़्त की बन्दिशें बहुत हर शय गुलाम वक़्त का
वक़्त जब भी बदला तो उसने इतिहास रच दिया।।
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है वो दुश्मन मेरा अज़ीज़ गर हो दुश्मनी के लायक
खुदगर्ज़ दोस्त की नजदीकियां मेरे कद की नहीं।।
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लफ्जों के कुछ टुकड़े हुए और कुछ हर्फ़ आपस में मिले
कुछ तो बन गये गीले गज़ल कुछ आँखों से बह निकले ।।
वो दर्द भर फिर हमनें कलम में कागज़ पर कुछ यूं लिखा
जब खोली गयी पन्नों की परत जख्मों के उसमें तह निकले।।
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मैं उम्रभर अपने ख़्वाब की ताबीर समझता रहा उसे
मेरी बर्बादियों का इक़ इक़ हर्फ़ लिखा था जिसने।।
मैं चाह कर भी उसके चेहरे से वो नक़ाब हटा न पाया
गुजरे वक़्त में उसको अपना ख़्वाब कहा था हमनें।।-
चालाकियाँ बहुत है उनमें ज़रा सम्भल कर रहना
सोचने की ताक़त चली जायेगी सम्भल कर रहना
गर देर तक तुम दुश्मनी की बातें करते रहोगे यूँ ही
दोस्ती की आदत चली जायेगी सम्भल कर रहना ।।
विदेशी ताकतों को तुम्हारी एकता से डर लगता है
बँटोगे तो यह एकता चली जायेगी सम्भल कर रहना
ज़माने से रही है गंगा-जमुनी संस्कृति पहचान हमारी
टूटोगे तो एकजुटता चली जायेगी सम्भल कर रहना।।
याद करना है गुजरे जमाने को हमीद को याद करना
अशफ़ाक़ को याद करना मन से कटुता चली जायेगी
मिलजुल कर ही पायी थी हमनें फिरंगियों पर फ़तह
कलह से अस्मिता चली जायेगी सम्भल कर रहना ।।-