प्रज्ञा मिश्र   (Pragya Mishra 'पद्मजा')
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Content Creator, Podcaster , Blogger at Shatdalradio, Radio Playback India and Mentza
Joined 20 September 2018


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ये दुनिया दिमाग भर होती है
सिकुड़ जाएं छटपटाएं
इससे आगे कहाँ जाएं

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धर्मांतरण

गर्म तवे जैसे ऑटो रिक्शा और
सर पे तांडव करते सूरज की कसम
एक धर्म छोड़ कर दूसरे धर्म में
कोई सिर्फ इसलिए गया क्योंकि उसे
तंग आया दिमागी इकोसिस्टम बदलना था

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धूर्त

आत्मीयता से निकालेंगे
तुम्हारी हर बात में कमी
मनोबल डिगा जायेंगे
ऐसे मिलेंगे जैसे कोई विश्वासपात्र
फिर बेकार सी सलाह बेच जायेंगे

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तू जब पेट से चिपक के
सबसेट की तरह सोता है
मेरी नींद का कोटा पूरा होता है
और जब उनींदी आखों से
खोजता है मुझे गाल पर हाथ रख कर
मुझे ज़िंदगी में ज़रूरतों से
ऊपर होने का बोध होता है

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कई वर्षों तक माँ शब्द पर
कुछ न लिखने पाने के बाद
बोध हुआ कि कुछ बातों की व्याख्या
अनुभव के बाद ही कर सकते हैं
इस पद का भार
सहर्ष स्वीकार करने वाले लोग
देवदूत होते हैं

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अपने दोपहर में ज़िंदगी
ठंडे रूह अफ़ज़ा जैसे
समय की प्रतीक्षा में है,
वो भीतर पसरे भय और दुःख
दूर करने आए तो नकारना मत,
जटिलताओं में जीना स्वीकारना मत।

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वर्तमान के सिवा
कहीं और नहीं होना
इच्छाएं सभी होंगी पूरी
जो प्रत्यक्ष वही स्वप्न सलोना
बहुत रीझ चुकी तुम
वापस आओ, साथ बैठो
समेटो अपना बिखराव
बटोरो कतरा कतरा
अनुभूत करो ठहराव

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जीवन जो भी है वर्तमान में है
वर्तमान भविष्य के देह की
कोशिका है

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एक बार अपना मान लेना
फिर उसे ही बार बार चाह लेना
प्रेम पाने की राह यही
इसी को धीरे धीरे साध लेना

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ना अपमान दर्ज होगा,
ना सम्मान दर्ज होगा,
केवल अपने भीतर किए गए
परिवर्तनों का प्रमाण दर्ज होगा।

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