प्रज्ञा मिश्र   (Pragya Mishra 'पद्मजा')
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Content Creator, Podcaster , Blogger at Shatdalradio, Radio Playback India and Mentza
Joined 20 September 2018


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लंबी बात चीत के बाद एक दूसरे से
प्रशिक्षित हो चुके चैट जीवी
अनुभव में जोड़ते हैं नए अनुबंध

लगातार आउट डेटेड होती चैट विंडो में
इलेक्ट्रॉनिक अपशिष्ट जैसे
जमा हो रहे हैं आभासी सम्बन्ध,

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लोग चाइनीज़ खाने में
उमामी स्वाद नहीं
उधेड़बुन से आराम खोजते हैं
नूडल जैसी ज़िंदगी का विरेचन
मैगी में खोजते हैं

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न आतंक रहा,न शासन,
बस सत्ता की वह अदृश्य रेखा —
जहाँ कोई हारता है,
और कोई जीत जाता है।

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दिल्ली में तालिबान आया
प्रोटोकॉल तालिबानी हो गई
क्या किसी को फ़र्क पड़ा
कितनी आसानी से मेज़बानी हो गई

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आज बहुत उदास और टूटा हुआ लग रहा है, आज दिल्ली में तालिबानी विदेश मंत्री के स्वागत में तालिबानी संस्कारों का पालन करती भारत सरकार ने "प्रोटोकॉल" के नाम पर महिला पत्रकारों को प्रेस कॉन्फ्रेंस में नहीं जाने दिया। आज 11 अक्टूबर 2025 है, आत्मसम्मान पर ठेस लगी है। आत्मगौरव क्षीण हुआ है। स्त्री नागरिक भी है इस देश की ऐसा उसके साथ कैसे हुआ वह भी इतने बड़े मंच पर, अपनी सर ज़मीन पर, हम अफ़गान में नहीं, दिल्ली में थे। ये नहीं होना चाहिए था, इस सच को अब कैसे बदलेंगे आप।

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बहुत गहरी नींद में
अपना सर दर्द लिखती हूं
लगता है सो जाऊंगी तो
सब भूल जाऊंगी

देर रात बन जाती हूं अपना सुधार गृह
सुबह जागने में देर कर जाती हूं
एक अरसे तक चलता है ये चक्र
फिर समयशाला में चालीस पार कर जाती हूं

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अवसाद के कारणों को
ये मूल्यांकन के बाद
खुद को ठीक ठीक
समझते हुए पनपती है

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"तुम्हारी ज़िद तुम्हे कहीं का नहीं छोड़ेगी"

मैं पूछती हूं, आखिर हम लोग
कहीं छूट क्यों जाना चाहते हैं!

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जोड़े हमेशा कॉन्सेंट्रिक सर्कल्स हुए
क्योंकि समकेंद्रित वृत्त आकार में
कितने भी भिन् हों, उनके व्यासों पर
एक दूसरे के अनुरूप
एक बिंदु अवश्य होता है

(इनविफिनिटी पर एक डॉक्यूमेंट्री देखते हुए आए विचार)

प्रज्ञा पद्मजा

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बाहर की दुनिया बड़ी है
यहां अपना कद छोटा लगता है
मान्यता की भूख में
लब्ध प्रतिष्ठित की स्वीकृति पाना
सरल लगता है

भीतर की दुनिया अथाह है
यहां नीरवता में दर्पण दिखता है
डायरी में लिखे सच को
व्यावहारिकता में जी पाना
कठिन लगता है

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