प्रज्ञा मिश्र   (Pragya Mishra 'पद्मजा')
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Content Creator, Podcaster , Blogger at Shatdalradio, Radio Playback India and Mentza
Joined 20 September 2018


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आसान है एक कमरे से निकल कर दूसरे में छुप जाना
मुश्किल लगने लगा है धूप और रौशनी से मिल पाना

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जाने तुम मुझे
कैसे लाइक करते हो
नोटीफिकेशन तो आती है
पर रिएक्शन नहीं दिखते

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साम्प्रदायिकता की लू लग जाए तो
समय का पेट खराब हो जाता है
नहीं काम आते ORS के घोल
प्रायोजित दस्त से
समाज ध्वस्त हो जाता है

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खीर बनाओ तो मीठी बनाओ
चटनी बनाओ तो तीखी बनाओ
सादी खीर और फीकी चटनी
आम आदमी के भीतर का
दमघोंटू मझोलापन है
जो उसे पूरा जीने नहीं देता

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जिनके पास खुला मैदान नहीं होता
वो शब्दों में खेलते हैं

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सूर्य की किरण सबने देखी है
लेकिन जिस ज्योति ने तुम्हारी आंखें देखी
जिससे तुमने दुनिया देखी
वह बस तुम्हारी आंखों देखी है।

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लिखते हुए आदमी से
ये मत कहो कि अब किताब लिखो
पढ़ते हुए आदमी से
ये मत कहो
की अब सबके लिए पढ़ो
कुछ लोग सब कुछ
क्षणभंगुर छोड़ना चाहते हैं
हर वक्त दुनिया में
छाप छोड़ के जाना ज़रूरी नहीं होता
है अभिव्यक्तियां अपने भीतर से
निकाल देने के लिए लिखी जाती हैं
छप कर अलमारी में बंद हो जाना जरूरी नहीं होता

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एक समय के दो सिरे पर बैठे
लोगों को कभी पता नहीं चलता
कि जिसके जीवन से
ईर्ष्या कर दूरियां बढ़ा ली गई
वह अपनी उलझनों के
झूले झूल रहा था

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मैंने और तुमने
एक दूसरे को एक साथ याद किया
एक ही समय के दो सिरों पर
तुमने मेरे व्हाट्सएप स्टेट्स पर जवाब लिखा
मैंने एक प्रेम क्षणिका से संवाद शुरू किया
आगे बहुत देर तक
हम गैरजरूरी लोगों से बात करते रहे
मैंने तुम्हारा जवाब नहीं देखा
तुम्हे मेरे संवाद नहीं दिखे
परवाह अनसीन उदासीन रह गई
मुझे क्या मतलब उसे क्या मतलब
करते करते बेपरवाही रिश्ते में घर कर गई

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मैं तुम्हे तब देखना चाहती हूं
जब तुम्हें कोई नहीं देखता
तुम्हारा कोई आवरण नहीं होता
और एक बच्चे की तरह
तुम जीवन के
सबसे ज़रूरी कामों में
मगन होते है जैसे
प्रेम, निद्रा और आहार।

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