एड़ियों के लोच से बांधे है खग -
-मन चाल लेके संग भागे है वो नभ-
-मन और धारा में धरा के बह चला,
एड़ियों की चाप पर मुड़ता चला!
बन धार निर्झर अंजुरी में,
दीप्त पावन उस घड़ी झर-
-झर के मोती अमिय रस की
तृप्त तन करता रहा,
मन एड़ियों के संग में रमता रहा!
लह लह के आती देह गति
क्षण क्षण की जैसे लुप्त मति
विचरण गगन में मुक्त खग करता रहा
लय ताल सब एड़ी में ही सुनता रहा!-
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श्रृंगार लिखना पसंद है मुझे, तो ... read more
नींद में भी ऊंघता मन, पीर हिय की बेधता मन
सरसराती शेष मृत्ति में ही जीवन खोजता मन
पीर हिय की बेधता मन
नित्य नूतन नृत्य करती, वाष्पकण से भू को रंगती
स्वर्ग की देवांगना में, भू की रमणी खोजता मन
पीर हिय की बेधता मन
भूत की भ-भूत तन में, फिर रहा अवधूत मन में
काल के कोंपल को ओझल, भूत में ही झूलता मन
पीर हिय की बेधता मन
मुक्ति ही नियति है जिसकी, मुक्ति ही शक्ति है जिसकी
बद्ध करने "प्रेम" को क्षण-क्षण ही युक्ति खोजता मन
पीर हिय की बेधता मन-
बिखरी ज़ुल्फ़ों से झाँकती अलसाई आंखें
सर्दियों में इतवार का आलम, ख़ुदा ख़ैर करे-
भर अमिय रस अधर तल में
नार निरखे वन सघन में
देह आभा स्वातिसुत सम
पूर्ण शशि काले गगन में
और उस पर अलक ऐसे
मेहप्रिय के पंख कैसे
वायु-बाहु-पाश सम ज्यों
विकल प्रेमी मत्त जैसे
और ज्यों झरता है निर्झर
देह पट वायु में बहकर
मानो सृष्टि व्यूह रचती
संग मनसिज काम के शर
केश आके अधर ठहरें
और उलझे जाएं क्षण क्षण
देह कानन लाज लाली
और सिहरन मन मदन रण-
प्रेयसी के मन व तन में
प्रेम ही साजे है आज
मन मृदंग बन,मेहप्रिय संग
मंद मंद मल्हार राग
इक छुअन थी दूजी पुलकन
कुंतलों की स्याह रात
और रति के स्वर्ग से
सुन्दर भी होगी कोई बात!
शेष तृष्णा, काम कृष्णा
एक-एक चितवन छुअन
जीव में जीवन पिरोता
सूत ज्यों बेला सघन-
कंचन कलिका या पीत पुहुप ,सौरभ सुरभित तारुण्य रूप
सब लुप्त सुप्त हो जाते हैं, सुदूर कहीं रह जाते हैं
सुन्दर सी गंध बनी रहती, जब तक प्राणों की नमी रहती
जब तक संसर्ग सहज रहता, जब तक भावों में प्रणय बहता
सब दीप राग ओझल होते, प्रति पल प्रति कण बोझल होते
संशय सन्देह मे उलझे मन, अनुमान में फिर जीवन खोते
खुलने दो तन के बंधन को, बहने दो मन के कानन को
सब भाव समाधि हो पहले, घुलने दो प्रीत के सावन को-
जो भी अंकित, कथित सृष्टि में
और जो प्रतिदिन दृश्य दृष्टि में
अथक प्रयास शब्द के किन्तु
जलकण सम व भाव हैं सिंधु
मन स्पन्दन लिखोगे कैसे
लोचन तृष्णा कहोगे कैसे
अधरों के अमृत की मदिरा
के रस की मसि भरोगे कैसे-
तुम साध्य भी, तुम ही साधिका
तुम देव भी, तुम ही देहिका
तुम रंग भी, रंगरेज भी
सिय भी तुम्ही, तुम्ही चण्डिका
तुम शान्ति भी, तुम भ्रांति भी
उर में उपजती क्रांति भी
तुम रिक्तता, सम्पूर्णता
तुम ही तमस, तुम ही दृष्टि भी
तुम सूर्य भी और शुक्र भी
तुम हो रति, तुम ही आरती
तुम ही विरक्ति, आसक्ति हो
मन की मेरे तुम मुक्ति भी-
आसक्ति अंतस में दबा कर
मोल क्या उस मुक्ति का
जीत जाना स्वयं से ही
बोध है ये शक्ति का
प्राप्य जब कुछ है नहीं
फिर छोड़ना कैसा व क्या
रंक नहीं राजा ही बनता
आगे समय में बुद्ध सा
त्याग कर सब वेश वैभव
रंक राजा भेद क्या
एक के अंतस ही केवल
बोध है संतुष्टि का-