प्रज्ञा   (प्रज्ञा)
942 Followers · 131 Following

read more
Joined 2 July 2020


read more
Joined 2 July 2020
24 APR AT 17:03

शशि कला से शशिकला के
दृग प्रसुप्त भरमाते हैं
तरुण रश्मि से भरी यामिनी
संग बयार बहाते हैं
मल्लिका की वेणी मुक्ता
रूप में है झर रही
अधखुले से उलझे सुलझे
केश आनन भर रही
तन बदन पग नख समेटे
लोचनों में वारुणी
हंसिनी वो मंद गति
मूंगा अधर सम आरुणी

-



दसों दिशाओं से प्रतिध्वनियां
मूक मूक वाचाल से रंग
क्षण क्षण की चेतनता जल कण
चंचल चपला योगी संग
दिवस निशा शृंगार में डूबे
या अभिसार से सिंचित उर
मानो पिय अधिकार मिला हो
आज रखेंगे अधर मधुर
देवनदी की वेगवान सी
अक्खड़ लहरें क्या चाहें
रुद्र देव की रौद्र जटाओं
में वो जाके थम जाएं

-


23 APR AT 17:57

मद्धम मद्धम लौ सी पुलकन
अंग कदाचित् लौ स्पन्दन
स्वर्णिम देह पे चीर के बंधन
चित चोरी में कुशल है अंजन
वायु वेग से लौ की मचलन
मानो आनन प्रीति का सावन
देह सी लाली बाती आई
प्रिय का अंक या लौ का ईंधन

-



होलिका की क्लांत लपटें
चैत में ले ताप भभकें
बावला मन दूर सबसे
या कभी स्व से ही भटके
आसक्ति क्षण क्षण है विरक्ति
मन की माया, ईश-शक्ति
मरू के मृग के मुँह में जल की
प्राप्ति ही बस एक तृप्ति

-


20 DEC 2022 AT 18:20

एक पैग़ाम आपके नाम...

-


20 DEC 2022 AT 17:36

सुनो प्रिए! अब चलती हूं मैं
पुष्पसार ही जान लो तुम
आता मिलता घुलता चलता
बहे वायु संग मान लो तुम

नैनन से भावों की लिखाई
नहीं देह तक, मन तक है
साथ कभी न पूरा होता
मोह की माया पग पग है

वो होता है मन का मिलना
बने इत्र और घुल जाए
तन मन तेरा महके ऐसे
हाला सम बस छलकाए

-


8 NOV 2022 AT 12:03

प्रीत निशा अब बीत रही पर
मन तो बस ये रमा हुआ
धड़कन सिसकन सांसे आँहें
ताना बाना बुना हुआ
मन तो जाने पर ये जानो
तन की भी अपनी यादें
मन की बातें जग करता
पर देह देह को पहचाने
रीति नहीं है प्रीत में कोई
धूसर हो पर मिटे नहीं
गोल गोल सी दुनिया है ये
क्या जानो कल मिलो यहीं...

-


31 MAR 2022 AT 9:04

🥀चीर नहीं ये केश चीर हैं
लटकन मटकन बलखाते
कंचन सम काया किंचित जब
मंद पवन से लहराते
देह टिकी है शीत भीत पे
रोम रोम हैं खुले हुए
वक्ष-वृंत की लोलुपता दो
लोचन जोड़े जुड़े हुए
थिरकन जाने तन की है या
स्पंदन है ये मन का
प्रेम प्रेम में उलझ रहा बन
नंदन कानन चंदन का🥀

-


28 MAR 2022 AT 20:40


🥀बेतरतीब तुम्हारी बदमाशियां,बदन में गढ़ती नक्काशियां
सुरूर कैसा अलग सा अजीब सा,बातें करतीं,लबों की ख़ामोशियां🥀

-


26 NOV 2021 AT 19:45

🥀इच्छावती वो मानिनी यूं, नित्य नूतन रूप है धरती
बांस-बन सम जब जले मन, हो अगोचर स्वांग करती

स्वप्न से भी खींच ले जो, गंधसार ही है कलेवर
एक ही संधान में चित, साधे जब भी काम के शर

इच्छावती कामायनी वो, मल्लिका मनमोहनी
क्षण ही क्षण में हिय मैं हारूं, हाय कटि की करधनी

सप्तस्वर नैना सजाए, हो निशा जब बैंजनी
भ्रू को अपने वक्र कर जब, केश खेले तर्जनी🥀

-


Fetching प्रज्ञा Quotes