मानव मन तम कोठरी,बिन पाए गुरु ज्ञान।
गुरुवर गुण की पोटरी, पुंज प्रकाश समान।
जीवन राह कठिन बहुत, चलना हमें सिखाय।
गुरु माटी कंचन किए, हम सब शीष नवाय।
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भावुक मृदु मनुहार बने है
देवालय में नहीं मिलते कोई देव
प्रांगण के पश्च मार्ग से वे निकल पड़ते हैं
मध्य रात्रि में अपने एकांत कि ओर
पुष्प के गंध विलग होकर चल पड़ते हैं उनके साथ
हुगली के उस घाट की ओर जहां छठ के पूर्व
वर्ष भर कोई नहीं जाता
घाट की ढलान की सीध में वे फैलाए रखते हैं अपने पैर
सारी ऊर्जा नदी में ढुलक जाती है
कौन जानता है ग्रीष्म में सूखती नदियों की वास्तविक वजह
जैसे कोई नहीं जानता किस ओर से बहती धाराओं से उफन जाती हैं नदियां
देव पूरे वर्ष ढूंढते है नदियों में मत्स्य शिशु
शिशु उनके गुरु हैं
अपनी ध्वनेद्रियों द्वारा देव सीखते हैं उनसे
जीवन शैलियों की बुलबुलाती परिभाषाएं
एकाएक नदियों की कलकल में उठती बुलबुलाहटें
छपाक छीटों और कराह में गूंज उठती हैं
क्षतिग्रस्त होती है सारी चेतनाऐं
खुली आंखों से देव देखते हैं जाल, बेंत की टोकरी ,
मल्लाह और वहीं मृत होता जीवन
छूट पड़ती हैं सुषुम्ना से मोह हीन, हतप्रभ श्वासें
रिक्त पंजों से घुटनों पर टेक लगा,
लड़खड़ाते उठते हैं देव
उलझे जटा जूट ,उलझी मालाओं,
अस्त व्यस्त पीतांबर के साथ अंततः
वे लौट पड़ते हैं अपने पुराने पद चिन्हों पर
अपने ही देवालयों की ओर।-
आप किसी स्त्री को प्रेम दे न दें किंतु सम्मान जरूर दें।
सम्मान की अनुपस्थिति में प्रेम का कोई मोल नहीं।-
बचपन से काँच की कटोरीयाँ ,
गिलास और बरनियाँ संभालने में
अभ्यस्त होती आईं बेटियाँ
बड़ी होकर क्रमशः
सबका मन संभालती जाती हैं।
इस सब संभाल लेने के क्रम में
जाने कितनी ही बार
चटक - चटक जाता है
उनका अपना
मृदुल मन।
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प्रेम में रही वस्तुएं जब लौटाई जाती हैं
तब वे मात्र वस्तुएं नहीं रह जाती
किसी मरे हुए संबंध का अवशेष भर बचती हैं
जैसे किसी पत्नी के हाथ में पड़ा हो
उसके पति का क्षत विक्षत शव।
और हृदय की पीड़ा का चीत्कार
चीरता जा रहा हो आसमां की सारी तहें।
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पहले वो करोड़ों में एक थी,अब वही तमाम में गिनी जाती है
उसे सुनाम का बड़ा फितूर था अब बदनाम में गिनी जाती है-
बातों की गंभीरता और महत्ता सरासर निजत्व पर निर्भर करती है। यदि कोई अपना सगा न हो तो मृत्यु जैसी शोकपूर्ण खबर भी एक ओह! के बाद भुलाई जा सकती है।
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"वयस्कता के बीच बचपने को बचाए रखना जीवन की सबसे अनमोल पूँजी है ।"— % &
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चाह ये कि बिन हृदय झुलसे भुनाए
शाखों से पत्ते प्रणय के टूट जाए।
प्रेम के जब आसरे चित चाहता सुख
प्रीति का बेकल हृदय तब चोट खाए।
चाह मन की हो सदा उल्लास का क्षण
कौन पतझड़ के रुदन को गुनगुनाए ?
चेतना सबकी यहाँ उन्मुक्त पाखी
क्यों विवशता में फँसा मन फड़फड़ाए?
धूप छाँव से बना जीवन का आँगन
क्यों सभी इस संतुलन को भूल जाए?-