देवालय में नहीं मिलते कोई देव
प्रांगण के पश्च मार्ग से वे निकल पड़ते हैं
मध्य रात्रि में अपने एकांत कि ओर
पुष्प के गंध विलग होकर चल पड़ते हैं उनके साथ
हुगली के उस घाट की ओर जहां छठ के पूर्व
वर्ष भर कोई नहीं जाता
घाट की ढलान की सीध में वे फैलाए रखते हैं अपने पैर
सारी ऊर्जा नदी में ढुलक जाती है
कौन जानता है ग्रीष्म में सूखती नदियों की वास्तविक वजह
जैसे कोई नहीं जानता किस ओर से बहती धाराओं से उफन जाती हैं नदियां
देव पूरे वर्ष ढूंढते है नदियों में मत्स्य शिशु
शिशु उनके गुरु हैं
अपनी ध्वनेद्रियों द्वारा देव सीखते हैं उनसे
जीवन शैलियों की बुलबुलाती परिभाषाएं
एकाएक नदियों की कलकल में उठती बुलबुलाहटें
छपाक छीटों और कराह में गूंज उठती हैं
क्षतिग्रस्त होती है सारी चेतनाऐं
खुली आंखों से देव देखते हैं जाल, बेंत की टोकरी ,
मल्लाह और वहीं मृत होता जीवन
छूट पड़ती हैं सुषुम्ना से मोह हीन, हतप्रभ श्वासें
रिक्त पंजों से घुटनों पर टेक लगा,
लड़खड़ाते उठते हैं देव
उलझे जटा जूट ,उलझी मालाओं,
अस्त व्यस्त पीतांबर के साथ अंततः
वे लौट पड़ते हैं अपने पुराने पद चिन्हों पर
अपने ही देवालयों की ओर।
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