Priyesh Anand   (वारिद)
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Joined 20 May 2020


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30 JUN AT 14:07

बीत जाएंगे लम्हा-लम्हा, इस जहाँ में सबकुछ फ़ानी है.
कौन-से चेहरे कब बुझ जाएँ, फिर काहे की गुमानी है?
आज खड़े हैं जो भी पुतले, कल वो ख़ाक के कण होंगे.
कहाँ बिखर कर कहाँ उगेंगे, बात ये किसने जानी है?

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14 MAR AT 7:53

मन खोजता है
भावों का प्रतिबिम्ब
फिर तकता है
प्रत्यक्ष मानुषी काया

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13 MAR AT 15:43

चेतना! तू मन से कह
होए नहीं भ्रमित वह
तन पर चढ़े रंग देख
उद्वेलन को संग देख
लाल हरा पीला वासंती
कह ये उसके रंग नहीं
बलात् या उद्धत हुल्लड़
कह कि है मूल ढंग नहीं
बांधने को जो आए त्रिग
शिवलिंग-सा वह रहे अडिग
रज-तम-कीचड़ में ना लोटे
सत हीं को चुने जागे-सोते
उसको होना है रंगहीन
तन निर्मल जैसे हेम का
और रंग जाना हीं हो विकल्प
तो रंग चुने वह प्रेम का

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4 MAR AT 0:42

पार है जाना
राग-उपवन के
प्रेम-पथिक

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3 MAR AT 19:39

अभागी हैं वो औरतें
वो अनेकानेक औरतें
जो देर तक चलीं
उन्मुक्त होने की चाह में
फिर कदम मोड़ लिए
जब देख नहीं पायीं
वांछा, मोह की चौखट-पार
प्रज्ञा के उज्जवल पदचिन्ह
और संग चलती उन्मुक्तता

अतएव अभागे रह गए
वे उन्मुक्त प्रज्ञ पुरुष भी
प्रतीक्षारत खड़े थे जो
उस अंतिम चौखट के पार
जिसे लांघ न सकीं
वे दिग्भ्रमित औरतें
और खींचती चली गयीं
जग-माया के वशीभूत
प्रथम मुड़े कदमों के बाद

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28 FEB AT 17:34

संसार
चलता है
अपने साथ लेकर
असंख्य बनते मिटते मूर्त
सप्राण मूर्त माँगते हैं स्वामित्व
निज जान "देह-धूल" और प्राण
संसार मूक ऋषि की भाँति सुनता है
क्योंकि वह जानता है प्राण एक नियम है
सूर्य-कण के सदृश प्रकृत सक्रिय तंतु का नियम
वह जानता है कि "समय-सापेक्ष" मूर्त बंद कर देंगे
ज्ञानी अथवा "भू-शायी" हो कर एक दिन स्वामित्व की माँग
संसार जानता है कि प्रकृति की यादृच्छिक घटना है स्वयं और मूर्त

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12 FEB AT 16:12

ग़म-ए-दिल मगर क्यूँ छुपाया था तुमने

अभी हमने पोंछी थी बूंदें तुम्हारी
अभी ही मुझे भी रुलाया था तुमने

पड़े थे कभी से मरु-वन में हम तो
कई गुल वहीं पर उगाया था तुमने

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12 FEB AT 13:13

एक ही माटी सब उगे, एकै सबका नाश ।
जग धोखे में है पड़ा, कहि मुए रैदास ।।

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10 FEB AT 22:44

तोहफा सर्वदा भाव-संप्रेषण की असमर्थता की ग्लानि से घिरे होने के लिए शापित है।

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10 FEB AT 14:35

दूर दफ्तरों में घूमती
सड़कों, नुक्कड़ों पर खड़ी
धूल-सी जमी शोर से तंग
भागी हुई वह एक चुप्पी
रोज शाम चली आती है
दबे पैर, बिना आहट
और दुबक बैठती है, जैसे
कोई डरा शशक आ बैठा हो
अंधेरे कोने में देह सिकोड़
और कभी सिरहाने सो जाती है
नवजात बच्चे की तरह
अनुत्तरदायी भाव लिए
पर जब गहराने को होती है
बेसुधी आँखों के पीछे कहीं,
तकिए से सरक कर
चुपचाप वही चुप्पी
चली आती है मन के भीतर
और खोलती है फिर से
वही एक पुरानी गठरी
जिसमें कितने हीं प्रश्न हैं
बेचैन-से अनुत्तरित प्रश्न
जो लगाते हैं एक चिन्ह
उसी शोर के प्राप्तव्य पर
और बड़े निष्ठुर होकर
मेरे होने के उद्देश्य पर भी
चिन्ह, जो चेतन में घुस
कर देता है व्यग्र, व्याकुल
फिर उसी गठरी से
निकालती है शीतल, शांत
कुछ आशाएँ, कामनाएँ
कुछ भींगी-सी भावनाएँ भी
फिर सबकुछ वहीं छोड़
बंद किवाड़ के फाँटों से
निकल जाती है छोड़ते हुए
रात की स्याही से बने पदचिन्ह
जो उसके आने तक
विस्मृत नहीं होने देते
उसके जाने का दुःख
शोर से भागी एक चुप्पी का दुःख

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