Nobody chooses to be mentally ill.
Nobody chooses sadness.
Nobody chooses depression, or anxiety, or illness.
Nobody chooses to spiral out or get triggered and relive their trauma.
Nobody chooses to hold on to trauma.
Healing takes time, it takes support, energy, space and sometimes even help.
Some of us did not get that space or time.
You don't know their story.
So next time before you suggest someone to "move on'’, "be happy or positive", "to see the glass half full" or "others have it worse than you" take a breath, empathise with them, and ask if you can help them in any manner.-
सूर्य सा तप रहा है चन्द्रमा आज नीलीं ये रात को।
शीतल सी चाँदनी में ज़ैसे दबे पड़े कई जज़्बात हो॥-
नाराज़ हूँ मैं बोहोत ही अपने आप से ,
लड़ रहीं हूँ लगातार अपने जज़्बात से ।
फ़िलहाल,
रह गया हैं जो अधूरां उसे पूरा करना हैं ।
काले पड गये सपनों मे रंग अभी भरना हैं ॥
पर,
थम गईं है ज़िंदगी की रफ़्तार ।
रुक सा गया है मेरा ये संसार ॥
ये सच हैं,
क़ीमत काफ़ी भारी चुकाई है मैंने ज़िंदा रेहने की ।
सब के बस की नहीं कला ये सब-कुछ हँसके सेहने की ॥
अफ़सोस,
बेवजह किसी की टीका-टिप्पणी करना काम है लोगों का ।
हाल जानना समज़ा ना ज़रूरी किसी ने मेरे धुँधले से मन का ॥-
“इन्हें परवाः है मेरी”
वक़्त और हालात ने साथ ना दीया है कभी।
तन और मन ने भी साथ मेरा छोड़ा है अभी।
सौ बार ग़िरी हूँ मैं,
हज़ार बार उठीं हूँ मैं।
हार ना मानी है, ताक़त मेरी लगाईं है सभी।
पैर दोनो टूट गए है मेरे,
क़िस्मत पे लगे है घने अँधेरे।
रिड़ पे है लगी चोट भारी,
बेहोश हुईं पड़ी थी मैं बेचारी।
सिर मेरा फूटा है इस बार,
सूने मैंने सबके है ताने लगातार।
समय लगेगा,
पर हो जाऊँगी ठीक मैं हर बार की तरहा,
बात सुनो,
मत करो मेरी ये दिखावे की जूठी परवाः।-
"मन की बात"
दुहाईं दुनिया और समाज की,
खा गई सुख शांति अपनो की,
चार लोग़ क्या कहेंग़े - सोचेंग़े?
चिंता ना कोई अपनी ख़ुशियों की।
दोगले है यें लोग़ सारे ज़माने के,
हाथी के दाँत लम्बें सिर्फ़ दिखाने के,
परिवार ना बनता है इस समाज से,
रिश्ते - नाते तो है क़ेवल अपनो से।
फिर क्यूँ डूबा है तु गेहरी सोच मै?
रेह फ़क़ीरा तु अपनी मन - मस्ती मै।
तेरे हर ग़म - ख़ुशियों पे हक़ सिर्फ़ तेरा है,
हर काली रात के बाद उजला एक सवेरा है।-
"अंतः पूर्णविराम"
ज़हन से हर एक बातें और यादें, दोनो मिटानी चाहीं थी मैंने,
शायद दिल-दिमाग़ में धुँधली सी भी हो गई थी वो बीतीं बातें और यादें।
अनजाने में एक पुरानी तस्वीर आँखो के सामने आ पड़ी आज़।
बेरहम दुनिया की चकाचौन में ग़ूम, सालों बाद मैं रो पड़ी आज़!!
बिखरें जज़्बातों को समेट, मैं निकल पड़ी थी तेज रफ़्तार से नई जिंदगानी की ओर।
दिन रात सिर्फ़ कड़ी मेहनत कर, टूटे सपनो को जोड़!
लगाके उन सपनो को पंख लाई मैं जीवन में नया एक मोड़!!
अतीत के उस लम्हे को आँखो के सामने देख कमज़ोर पड़ गई थीं मैं आज़।
पर भूतकाल तो अत्यंत पीछे रख़, अपनी खुद की प्रबल पहचान बनाके खड़ी हूँ मैं आज़!!
कहानी तो वहीं अधूरी छूट गई थी, पर उस पर पूर्णविराम भी रख दीया है मैंने आज़।।।।।-
“चाँद के इंतेज़ार में”
चाँद को एक टक निहारने की आस में रात भर जागते रहे,
पर कम्बख़्त ये बादल हमसे ना जाने क्यूँ रुसवा से रहे!
यूँही चाँद के दीदार के इंतेज़ार में दो हफ़्ते निकल गए,
पर बादलों ने हमारी एक ना सुनी और अमावस के अँधेरे हो चले!॥-
“ख़ुद के नाम एक ख़त”
रिश्ते संभालने में ज़िंदगी निकाली, सम्मान पीछे छोड़ चली।
रद्दी के मोल लोगों ने तोला आत्मसम्मान, ग़लती क्या हुई तुझसे - सोचे तु खड़ी!
सभ्य समाज की तो बस यहीं रीत, आदर से जो झुके उसे गिराने में ही मिलतीं ख़ुशी बड़ी!
बंद कर समझौते का बेहूदा खेल - कब तक यूँ मर के जिएग़ी? आगे तेरे ये बाक़ी ज़िन्दगी पड़ी!!
वक़्त रेह्ते ख़ुद-आदर से सिखले जीना, कहीं ये रैना बीत न जाए ओ रे सखी।!-
“ मेरी हक़ीक़त”
साल बीत गए आज पाँच, दौड़ना भूल गई उस हादसे से,
चाहा बोहोत मैंने, पर उभर ना पाई उस रात की यादों से!
थी लोगों के लिए वो मात्र दर्दनाक दुर्घटना एक।
खो दिए मैंने, देखे थे जो खुली आँखो से सपने अनेक!!
उड़ना-दौड़ना-खेलना चाहतीं थी मैं, अब लिखना चाहतीं हूँ।
ज़मीन पे पैर ना टिकते थे मेरे, अब क़लम का सहारा चाहतीं हूँ।।
कमज़ोर ना समझना ए दुनिया मुझे, उठ कर चलना सिख गई हूँ मैं!
अपनी कविताओं के आसरे ही सहीं, अपने-आप संभलना सिख गई हूँ मैं!!!-
सिर्फ़ एक दिखावी ढाँचा है तस्वीर आजकल की,
शब्द बग़ैर अधूरा है यें संसार!
बात यें समज़ने में वक़्त बीतता चला जाएगा,
पर देर-सवेर समझेगा ज़रूर यें संसार!!-