Mirage..... दृष्टिभ्रम
-
त्याग दो उस भोग को जो अभिमान अतीत का छीन ले
विचार करो उस सत्य का जो स्वाभिमान की सीख दे
हों दृढ़ी रहें निस्वार्थी निष्पाप हृदय परमार्थी
है दिव्यता ये वेद की मन जले वो दिव्य ज्ञानदीप
निज भाषा हो उपनिषद सी, तू गीता से भी सीख ले
यदि शिष्य है तू अर्जुन सा मिले वो कृष्ण सारथी
स्मरण रहे वो स्मृतियाँ और वेदांग का भी मान हो
है धर्म क्या इस मर्म का परम् सत्य का तुझे भान हो
हों प्रदीप्त तेरे ज्ञानचक्षु जो शिवयोग तुझे आधीन ले
तू कौटिल्य सा गुरू है यदि तुझे चन्द्र की पहचान हो
त्यागपूर्ण इतिहास से प्रज्ञानमयी एक सीख ले
इस तन से तू स्वतन्त्र तब निज विचार शक्ति स्वाधीन ले
त्याग दो उस भोग को जो अभिमान अतीत का छीन ले
-
है अभी तो क्या
मौन भी अपराधी है
हम जानते हैं
अज्ञानता के आवरण में
छिपा है कौन, न बोले
तथापि हम पहचानते हैं-
सत्य को देखने के लिए दृष्टि में निष्पक्षता और विचारों में पवित्रता प्रथम उपबंध है ।
-
आर्थिक आत्मनिर्भरता ही पर्याप्त नहीं
श्रेष्ठ जीवन के लिए
कर्म और विचार से आत्मनिर्भर बनिये
💐शिक्षक दिवस की शुभकामनाऐं💐-
आवाहन करो उस सृजन का,जो जनाक्रोश से उपजा है
है पश्चिम धाक रही तेरी, अब भारत जागृत होता है
संस्कृति का ज्ञान बढ़ा, अतीत का पुनि मान बढा
वेदों की पुर्नसमीक्षा और उपनिषदों पर परिचर्चा।
क्या संस्कृत क्या षड्दर्शन, सबको अमृतपान मिला
योग संजीवनी से जगपर अब रंग हिन्दुस्तान चढा़।।
अतीत के दूषित चित्रण का अक्षम्य अघ था किया गया
कुत्सितसोच के छल ने हमको भी दृष्टिदोषी बना दिया।
राष्ट्रवीरों को सम्मान मिला,वंचित जिससे उन्हें रखागया
क्षमाप्रार्थी भारती ने भेंट मातृभूमि को अर्पित किया।
सौंप भविष्य को अमूल्य धरोहर, मुदित वर्तमान अब होता है
सौभाग्य भावी पीढ़ी का, फिर भारत जागृत होता है
-
हे भारतभूमि, तू राम कृष्ण बुद्ध की धरा कही जाती है
जहां 'जिन' का अहिंसा पाठ, वाणी नानक की गाई जाती है
ऐसी ऋषिभूमि तू योगभूमि आम्भी जयचंद्रो की भेंट चढ़ी
घनानंदों के अहं स्वार्थ तले हे पुण्यधरा क्यों कुचली गई
सभ्यता के दमनचक्र में मंदिर संस्कृति का ध्वस्त किया मदांधों की तलवारों ने गिद्धों को मृत्यु भोज दिया
मातृभूमि के वीरों से उन्मत गजों को जो ललकार मिला
तो रेत के तूफानों को उनकी सीमा में रहना सिखा दिया
तिमिर धुंधलका छटा ही था कि विपदा का पहाड़ कुछ यूं टूटा
जैसे घायल गौ की रक्त सुगंध ले भूखा भेड़िया जा पहुंचा
प्रारंभ हुआ धन का नर्तन मान हरण और यश मर्दन
लालच की नई रीत चल पड़ी और खंडित हिंदुस्तान हुआ
परिवर्तन आह! परिवर्तन
कितनों का मांगे है जीवन
क्यों निष्ठुर कठोर तू मौन खड़ा,
क्या मिला है खोकर तन मन धन
स्वाधीन हुआ भारत का जन,पर विचारशक्ति पराधीन हुई
आधुनिकता की धुन में वो भूल गया जीवन दर्शन
राजपाटों का रूप नया पर सोच में लालच समा गया
जयचंद्रों आम्भीकुमारों ने अब नया मुखौटा लगा लिया
मूल्यों का फिर ह्रास हुआ विखंडित भारत समाज हुआ
सत्ता की आकुलता ने उन्हें क्या देशद्रोह भी सिखा दिया
उठो वीर धरा की संतानों
कर्तव्यों को अपने जानो
ना भ्रम में पड़ो सत पहचानो
क्या हुआ है समझो नादानों
जो अर्जुन 'चन्द्र'हुए उनकी ही गाथाऐं गाई जाती हैं
मत भूलो भारत,राम कृष्ण बुद्ध की धरा कही जाती है
-
जिनके शब्दों में भी दूसरों की सोच नजर आती है वो नादान भी खुद को समझदार समझ बैठे।
-