जब हुआ कन्यादान, ख़ाली कर वो मक़ान, उसकी डोली उठी वो सुहागन बनी।।
करके रस्में अदा, घर से होके विदा
उसका स्वागत हुआ एक नए अंगने में, करने को फिर गुलिस्तां
ज्यों पड़े थे कदम, कुछ गई वो सेहम
सबने हसकर कहा, है तुम्हारा यह घर, संजोना प्यार से, सब तुम्हारे है अब, बैठी संकुचित सी थी, दम सा घुटने लगा, हाथ जैसे उठा घूंघट की तरफ,
सबने फिर से कहा कैद रखो ये चेहरा घूंघट में ही तुम, पल्लू की ओट से उसने देखा था सब
कहा सिमटी रहो, कुछ तो लज्जा रखो।।
अब तुम बेटी नही, हो बहु तुम बनी।।बात मर्यादा - इज्जत पे आके ठनी।। हैं तो अपने ही सब फिर क्यूं पर्दा यहां, प्रश्नों की इक लड़ी उसके मन ने बुनी।।
याद आता हैं क्यूं उसको छूटा मक़ाम, देह अब भी वही, बंदिशें कुछ नई जब से बेटी से वो है बहू बन गई।।।
-