ज्यादातर लोग अपनी प्राथमिकताएं तय करते हुए वक्त के साथ बदल जाते हैं । लेकिन जो लॉयल - निष्ठावान लोग होते हैं सच्चे मित्र के रूप में, सच्चे रिश्तों के रूप में ,सच्चे प्रेमी के रूप में वो हमारे लिए अपना व्यवहार , हमारे प्रति अपनी भावनाएं कभी नहीं बदलते । क्यूंकि वो नैतिक मूल्यों को समझते हैं । दुःख की बात ये है ऐसे लोग बहुत दुर्लभ हैं आज के समय में अगर हम भी हैं धर्म सम्मत तो हमें ज्यादातर अपने आसपास अपने जीवन में मोरल वैल्यू को न समझने वाले धर्मविरुद्ध व्यक्ति ही मिलते हैं । यानि जो वक्त के साथ सिर्फ अपने निजीस्वार्थ को ही ध्यान में रखते हुए बदल जाते हैं , जिनमें हमारे अपने भी शामिल होते हैं । सपनों की बात करूँ तो सपने इसलिए बदलते हैं या तो उन्हें हम पूरा नहीं कर पाते या हमारा ही करीबी व्यक्ति पूरा होने से रोक देता है । या नियति ही उस सपने को पूरा होते होते रोक देती है । लोगों को या सपने टूटकर देखने में इतना ही फायदा होता है अच्छे /बुरे की परख हो जाती है । पहले से थोड़े और समझदार बन जाते हैं । जहाँ पर अपना नियंत्रण नहीं होता उसे स्वीकार करने की हिम्मत आ जाती है । हम मानसिक रूप से और मजबूत बन जाते हैं ।
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When you start taking more interest in the flesh, then intere... read more
मन दो चीजों से मिलकर बना है विचार और आवेग भावनाएं विचार और आवेग एक दूसरे से गुंथे रहते है ,घनिष्ठ सम्बन्ध है विचार और आवेग /भाव एक दूसरे को सक्रीय करते हैंमन के शांत होने में आवेगों का शांत होना अति आवश्यक है विचार को शांत करना आसान हो जाता है जब भाव आवेग शांत हो आवेगों का सम्बन्ध प्राणो से है प्राणमय कोश शांत होने पर आपका भाव शरीर आवेग शांत हो जाते हैं तब आप आसानी से अपने मन को ध्यान द्वारा शांत कर सकते हैं अगर आप क्रोध में ,ईर्ष्या में ,लोभ में हैं ,बैचेन हैं ,तो आप शांत नहीं हो सकते आसन से शरीर शांत होता है और प्राणायाम से आवेग शांत होते हैं ध्यान से मन शांत होता है समाधी से अचेतन मन शांत होता है प्राणायाम से आवेग शांत होते हैं ,आवेग शांत होने से हमारा मन तनाव रहित होता है आत्मा ज्ञान स्वरूप है ज्ञान का अर्थ आत्मा या आत्म ज्ञान दोनों हैं आत्मा के अज्ञान के कारण ही मनुष्य अपने को व्यक्ति मानता है व्यक्तित्व ही अहंकार है जो समस्त दुखों का कारण है जब यह ज्ञान हो जाता है कि मैं ज्ञान स्वरूप आत्मा हूँ ,तब समस्त दुःख दूर हो जाते है और आनंद की प्राप्ति हो जाती है समस्त कर्म ज्ञान में परिसमाप्त हो जाते हैं गीता ज्ञानाग्नि में समस्त कर्म भस्मीभूत हो जाते हैं ज्ञान के सामान पवित्र करने वाला निसंदेह कुछ भी नहीं है जीवन का लक्ष्य आत्मज्ञान प्राप्त करना है ,जिसका साधन ध्यान है ।
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ध्यान का अर्थ है मन को साधने की कला या उपाय अर्थात चित्त वृतियों के प्रति ,विचार व भाव के प्रति सजगता । जब चित्त वृति शांत हो जाती है ,तब आत्म स्वभाव में रहना ही ध्यान है। आत्म स्वरूप में विश्राम ही ध्यान है। यह अद्वैतं अवस्था है।परिपक्वता आने पर खुली आँखों से भी ध्यान सम्भव है ।मन को साधने के उपाय को ही ध्यान कहते हैं श्वांस-प्रश्वांस पर अपना ध्यान लगाये ,यही सरल उपाय है श्वांस आपको सदा उपलब्ध है ,जिसे आप नहीं चलाते सिर्फ इसके प्रति जागरूक हों ,इसे महसूस करें ,इसके प्रति साक्षी हों बस इतना ही प्रयाप्त है कहने को यह बहुत सरल उपाय है ,किन्तु इसके परिणाम अकल्पनीय हैं इस ध्यान को छोटे बच्चे से लेकर एक वृद्ध तक कर सकता है मन को शांत करने का सरलतम उपाय है ,यह .इसे विपसना भी कहते हैं ।-
आंतरिक और बाहरी दोनों प्रकार के द्वन्दो से मुक्त हो जाना ही "ध्यान " है ।
यह मुक्ति मन के अवलोकन से आती है ,मन के प्रति साक्षित्व से,मन के प्रति जागरूकता से आती है .
क्योंकि मन ही द्वन्द है ।
द्वन्द का अर्थ विभाजन है अर्थात मन का विभाजन ।
विचार मनही विभाजित करता है ।विचार और विचारक ,दुःख और दुखी ,दृष्टा और दृश्य ,
हिन्दू-मुस्लिम ,गोरा-काला ,अमीर -गरीब सब मन के विभाजन है ,और द्वन्द या दुःख का कारण है ।
जब हम इस मन को ,द्वन्द को देखते है ,जागरूक होते हैं ,तब मन से ,द्वन्द से पूर्ण मुक्ति होती है ।
इस द्वन्द से मुक्ति में ही आनंद है ।-
मोक्ष का अर्थ मन से मुक्ति होना ही बताया गया है ,अहंकार से मुक्ति,दुखों से मुक्ति ,कामना से मुक्ति और परम आनंद की प्राप्ति
मोक्ष का अर्थ मन से मुक्ति है !मन का अस्तित्व मन से तादात्म्य के कारण है मन विचार के साक्षी होने से मन से जुड़ाव ,तादात्म्य टूटता है और मन से मुक्ति होती है((( मन के प्रति साक्षित्व को 'ध्यान' कहते है )))मन से मुक्त अवस्था का नाम 'समाधी ' है मुक्त व्यक्ति का मन समाप्त हो जाता है ,व्यक्ति भाव समाप्त हो जाता है अहंकार नष्ट होजाता है वह ब्रह्म के साथ ,परमतत्व के साथ एक हो जाता है .वह सर्व व्यापक के साथ एक हो जाता है यह बुद्धि से समझ में नहीं आसकता है सिर्फ ध्यान से ,मात्र ध्यान -समाधी से ही ज्यादा बेहतरीन तरीके से समझ सकते है ।-
सन्यासी वह है जो न किसी से द्वेष करता है और न किसी की आकांक्षा करता है उसे सन्यासी जान "-सन्यासी का अर्थ है सर्वत्यागी जिसने कामनाओं का ,अहंकार का ,राग द्वेष का , सर्वसंकल्पों का त्याग कर दिया है वह सन्यासी है "त्यागकर्ता" का भी त्याग सन्यास है ।और भोगेच्छा ही बंधन कही गयी है और उसका परित्याग ही मोक्ष कहलाता है। मन की प्रगति का कारण उसका नष्ट होना है। मन का नाश शोभाग्यवान मनुष्यों की पहिचान है। ज्ञानी पुरुषों के मन का नाश हो जाता है। अज्ञानी के लिए मन बंधन का कारण है। ज्ञानी पुरषो के लिए मन न तो आनंद रूप है। और न ही आनंदरहित उसके लिए वह चल अचल स्थिर सत अस्त भी नही अथवा इसके मध्य की स्तिथि वाला भी नही है। अखण्ड चेतन सत्ता सर्वब्यापक होते हुवे भी उसी प्रकार दृस्टि गोचर नही होती , जिस प्रकार चित्त में आलोकित होने वाला आकाश सूक्ष्ममता के कारण दिखाई नही देता।
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बुद्धत्व [Enlightenment ] आत्म साक्षात्कार क्या है ?मनुष्य सोया हुआ है यह एक सार्वभौमिक सत्य है ।मनुष्य चेतना का 90 % हिस्सा अचेतन है ,सोया है ,या कहो तमो गुण आवृत है इसे अज्ञान भी कहते हैं.इस सोये हिस्से का जागरण अथवा इस के प्रति जाग्रत हो जाना बुद्धत्व या आत्म साक्षात्कार है ।कही कोई हिस्सा सोया न रहे ।सिद्धियों से अहंकार पैदा होता है । राग द्वेष व मृत्यु का भय बना रहता है । किंतु आत्म ज्ञान से अहंकार नष्ट होता है तथा राग द्वेष आदि विकार भी नष्ट होते हैं ।हजारों लोगों में से कोई कोई सिद्धियों के लिए यत्न करता है और उनमें एक आध ही सिद्धियां प्राप्त करता है । उन सिद्धों में भी कोई एक आध ही तत्वज्ञान को प्राप्त करता है ।
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समस्त नकारात्मक भाव अहम या मन के हैं ।
जब तक हम मन के साथ युक्त होकर जियेंगे तब तक
जीवन मे नकारात्मकता ,दुख आदि रहेंगे ।
जब हम मन के साक्षी होकर जियेंगे ,सिर्फ तब ही
नकारात्मकता से मुक्त एक विधायक जीवन
प्रेम,आनंद ,अभय, आत्मनिष्ठा, होश, शांति के साथ ,सम्भव है।अतः मन को देखें ,मन अर्थात विचारों व भावनाओ के साक्षी होकर जियें।
अकर्ता व अभोक्ता भाव से ,साक्षी भाव के साथ।
ध्यान का अर्थ है यह पता लगाना कि कोई ऐसी अवस्था है जिसमे हमें दुःख स्पर्श न करे ,
जिसे राग-द्वेष न छू सके ,जिसे मृत्यु न छू सके ।
जहां सिर्फ आनंद ही आनंद हो जहां शांति का साम्राज्य हो । अवस्था मन के पार है ।ध्यान मन का अतिक्रमण है ,मन के पार जाना है मन अ-मन अवस्था की कल्पना नहीं कर सकता है मन का शांत होना अनिवार्य है ।साक्षी भाव से मन का अवलोकन करने से मन का अतिक्रमण होता है ।-
अघोर अर्थात वो जो संसार की माया के मर्म को समझता हो और उससे अनासक्ति का भाव रखता हो। शिवजी सबसे बड़े अघोरी हैं इसीलिए वे जन्म-मरण से परे हैं। कालों के काल महाकाल हैं। उनके लिये आरम्भ, मध्य और अन्त का कोई महत्व नहीं। उन्हीं की परंपरा के अनुयायी साधक 'अघोरी' कहलाते हैं। जो मृत्यु की अनिवार्यता और ब्रह्म तत्व की नित्यता का निरंतर अनुभव करते हैं। इसीलिए वे ऐसी जगहों में रहते हैं जहाँ से संसार भागता है। जहाँ समत्व भाव है जहाँ अच्छे-बुरे,अपने-पराये का कोई भेद शेष नहीं रहता। अनासक्ति और आत्मज्ञान की प्राप्ति का एक माध्यम है 'अघोर पंथ' . इसका कदापि तिरस्कार न करें। आवश्यक नहीं की जो आपको समझ में आ रहा हो केवल वही सत्य हो।
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सिद्धार्थ गौतम ने जब वृद्ध ,बीमार और शव को देखा ,तब उन्हें संसार की असत्यता का बोध हुआ .
किन्तु हम रोजाना मुर्दों को ,वृद्ध को ,बीमार व्यक्ति को देखते हैं .किन्तु हम इतने असंवेदनशील हैं कि हमें संसार की असत्यता नहीं दिखाई देती सिद्धार्थ न महल ,पत्नी ,सुख- सुविधा ,पुत्र सभी की असारता समझ ली महल और परिवार सहजता से छूट गया किन्तु हम संसार को सत्य मानकर ,मैं-मेरे से ,मोह-माया से चिपके रहते हैं नश्वर वस्तु, नश्वर संबंधों ,नश्वर सम्पति को लेकर दुखी होते हैं इसीलिए हम बुद्धत्व को ,परम आनंद को ,मुक्ति को प्राप्त नहीं कर पाते हैं सिद्धार्थ गौतम इसीलिए गौतम बुद्ध हो पाये कि उन्हें संसार असत्य नजर आया ,हमें नहीं ध्यान -समाधी से ही हमें वह दृष्टि ,संवेदनशीलता प्राप्त होती है ,जिससे संसार असत्य दिखाई देता है और हम सत्य को ,बुद्धत्व को ,परम आनंद को मुक्ति को प्राप्त करते हैं ."-