नहीं ! अब निरंतर लिखते रहने का मन नहीं करता । अब लिखे जाने की आस लगा बैठी हूँ । मैं लिखी जाना चाहती हूँ , किसी के गीतों और कविताओं में, संवेदनाओं में, परंपराओं में, तो कभी बहकी हुई घटाओं में ।
मैं लिखी जाना चाहती हूँ , आसमानों पर, चिरागों पर, शाखाओं पर, लताओं पर, और लिखी जाना चाहती हूँ मैं किसी की स्मृति रेखाओं पर !!