प्रियांशी उपाध्याय   (रूप)
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Joined 25 April 2020


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है यदि हिय में हरि का चिंतन,
फिर काहे चित्त को चिर की चिंता !?

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समाज दोगला है
वो चाहता है पुरुष मात्र अपनी स्त्रियों से प्रेम करें
दूसरों की नहीं !!

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नहीं ! अब निरंतर लिखते रहने का
मन नहीं करता ।
अब लिखे जाने की आस
लगा बैठी हूँ ।
मैं लिखी जाना चाहती हूँ ,
किसी के गीतों और कविताओं में,
संवेदनाओं में, परंपराओं में,
तो कभी बहकी हुई घटाओं में ।

मैं लिखी जाना चाहती हूँ ,
आसमानों पर, चिरागों पर,
शाखाओं पर, लताओं पर,
और लिखी जाना चाहती हूँ मैं
किसी की स्मृति रेखाओं पर !!

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मुझसे फ़ालतू
मत उलझना,

मेरी तो मनपसंद
सब्जी भी करेला है !!

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अच्छा बनने का नाटक करते-करते
सच में इतनी अच्छी बन गयी हूँ
कि अब बुरा लगने लगा है अपने लिए !!

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कोई तुमसे पूछे..
धरती पर स्वर्ग कहाँ..?
तुम घर का पता बता देना !

और यदि पूछे
अमृत का स्वाद है कैसा?
तो माँ के हाथ का बना हुआ
बस एक निवाला चखा देना !

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पेड़ों पर चिड़ियाँ चहक रही हैं ,
पर मेरे हृदय को तुम लुभाए हो !

बगिया में छायी फूलों की चादर ,
पर मेरे मन में तुम छाए हो !

सबमें खुशबु समा रही है ,
लेकिन मुझमें तुम समाए हो !

सब कहते हैं बसंत आया है ।
पर मैं कहती हूँ ' तुम आए हो ' !!

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