इंतज़ार करती हूं ,दिनों के घटने और
रातों के बढ़ने का ...
ताकि सो सकूं ,कुछ पल और सुकूं से
बुन सकूं चंद नए सपने
सबकी नजरों से छुपकर
जो अठखेलियाँ करें मेरी पलको से ...
सोचती हूं कभी-कभी
क्यों न बो आऊं चंद सपने मिट्टी में ...
जब फूटेंगे उनमें अंकुर
उगने लगेंगे नए सपने जब
तब अपनी पसंद के सपनो से
सजाऊँगी इन पलको को
सुनो...उदास न होना तुम
चाहो तो आ जाना तुम भी
उधार लेने चंद सपने....-
"लेखिकाएं"
बड़ी उम्र की लेखिकाएं न चुप होती हैं, न घमंडी,
बस थक चुकी होती हैं अपना ज़मीर बचाते-बचाते,
हर शब्द से पहले तोला है उन्होंने, हर रिश्ते को, हर मंच को
जब आती हैं कार्यक्रमों में
तो सिर्फ़ अपना काम करती और लौट जाती हैं...
बिना मुस्कुराहट की औपचारिकता,
बिना चाय की छलकती चुस्कियों के
लोग कहते ,देखो, कितनी आत्ममुग्ध हैं,
कितनी अकेली,शायद घमंडी भी
पर कोई नहीं देखता वो सारे ..."ना"
जो उन्होंने सीने पर चिपकाए हैं,
वो सारे प्रस्ताव जिन्हें ठुकराने की सज़ा
उन्हें मिली नज़रअंदाज़ी में...
ज़मीर का सीमेंट ,भावनाओं की ईंटें
आत्मसम्मान से गारा घोलकर
अपने इर्द गिर्द बना लेती हैं शब्दों का घर ...
वे अंतर्मुखी नहीं,बस अब संभल कर बोलती हैं
क्योंकि हर बोल ने चुकाया है दाम..
कभी कोशिश की गई उसकी पहचान मिटाने की
इसलिए जब वो चुप हों न तो समझना....
वो कोई दंभ नहीं वो चुप्पी है संघर्षों की
जो अब सिर्फ़ लेखनी में बोलती है।-
तुम उस किताब की तरह हो,
जिसके हर एक पन्ने पर
छुपे है ना जाने कितने राज़
हर एक हर्फ बया करता है
एक नयी सी कहानी
और मैं... मैं उसे पढ़कर जीना
और अपनी साँसों में पिरोना चाहती हूं....
सुनो...देखा है कभी तुमने
किताब का वो आखरी खाली पन्ना....
मैं उकेरना चाहती हूं
उसी आखरी खाली पन्ने पर
अपनी चाहतें, अपने अरमान
और अपना नाम....
ताकि उसके बाद
ना रहे कोई गुंजाइश...
किसी और नाम की....-
अधूरी आस ,अधूरी प्यास
अधूरे सपने ,अधूरे अपने
अधूरी चाहत ,अधूरी राहत
अधूरा प्यार ,अधूरा इकरार
अधूरी ज़िन्दगी ,अधूरी बंदगी
अधूरे अरमान ,अधूरी मुस्कान
कहाँ नसीब होता है सबको
इक मुक्कमल जहान।-
छुपा के दर्द अपना एक लम्हा मुस्कुराई थी मैं
पीकर अपने ही आँसु थोड़ा खिलखिलाई थी मैं
क्या पता था इक लम्हा भी ख़ुशी रास न आएगी
ले मोम की बैसाखियाँ अंगारो पर चलने आई थी मैं.-
वक़्त की शाख से कुछ यू लम्हे पिघलने लगे
रफ्ता रफ्ता हाथो से कुछ यू मोती झरने लगे
अभी तो समेटा ही था मुठी में आसमान को
अभी से क्यूं टूटकर यू तारे बिखरने लगे.-
पूरे दिन के भागदौड़ की थकन,
माथे पर लिए चिंता के लकीरें
हाथों में थाम एक प्याली चाय
अक्सर मैं शाम को बैठ जाती हूं
तन्हा अपनी बालकनी में
निहारती रहती डूबते सूरज को
उगते हुए मद्धम चाँद को
हसरत से बादलों की तरफ निहार
अंधेरे का इंतज़ार करते तारों को
अपने घरौंदों में लौटते हुए पंछी
एक रात सर छुपाने की जगह
ढूंढते हुए कबूतरों को
धीरे धीरे डूबता हुआ सूरज
दीवारों,छतों, गुंबन्दों,पेड़ों को पकड़ने की
कोशिश करती हुई सूरज की किरणें
कितना कुछ बिन कहे भी कह जाते हैं
शाम जैसे नदी है कोई
जिसमें डूबकर हम उभर आते हैं.-
बेवक्त बेसबब की रुसवाई से डरते हैं
जाने क्यों हम अपनी परछाई से डरते हैं।-
यूं लगता है चारों तरफ बस जाल ही जाल रखे हैं
जाने कितने सांप आस्तीन में हमनें पाल रखे हैं।-
वक़्त की शाख से लम्हे पिघलने लगे
रफ्ता रफ्ता मुठ्ठी से मोती फिसलने लगे
आसमां को मुठ्ठी में चाहा जो समेटना
टूटकर क्यूं ज़मी पर तारे बिखरने लगे।-