थोड़ी शिकायत है वक़्त से
बहुत ज्यादा परेशान हैं हम
जहान में ढूंढते फिरते हैं खुशियाँ
खुद से कितने अंजान हैं हम
प्लॉनिंग सालों की करते हैं
और जानते भी नहीं,
कितने दिन के मेहमान हैं हम
छोड़ आये वो घर वो चौखट
वो माँ की तरसती निगाहों को बेबस
अपनी खुशी,अपनी दुनियाँ ,
अपने सपनो की खातिर
कितने खुदगर्ज और बेईमान हैं हम
इतनी दरिंदगी इतनी बेईमानी
एक दूजे को रौद देने की दौड़
कभी फुर्सत मिले तो पूछना खुद से
क्या सच में इंसान हैं हम
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