चाँद को रोशनी से भरते हुए देखा हमने।
एक टूटती कश्ती को उभरते हुए देखा हमने।
पूर्णिमा सा भरा और अमावस सा खाली भी।
अपनी ही जिंदगी को यूँ गुजरते हुए देखा हमने।-
एक अनकहा जवाब हूं,
खुद को ही खुद में ढूंढती,
एक शांत सा शैलाब हूं।
ना जान... read more
अमानत
जो तुम्हारे पास था उससे कहीं ज़्यादा लौटाया है तुमने मुझको।
वो सूकून हो या सम्मान।
या वो स्नेह भरा अरमान।
भर दी जीवन में सारी खुशियाँ
कि अश्कों की झर झर बहती नदियाँ
विश्वास को संभाल कर बहुत ईमानदारी से
निभाया मेरा साथ।
जो उम्र भर रहेगा याद।-
इक दिन यों ही पूछ बैठी कुछ लहरे
सशक्त ,समर्थ और सबल नर्मदा से।
क्यों चुना तुमने संसार के विपरीत चलना।
तब नर्मदा ने कहा
मैंने नहीं चुना छल पाखंड
झूठ और विश्वासघात।
मैंने चुनी अपनी अस्मिता, अपनी गरिमा
और अपना स्वाभिमान।
और इनसे भी बढ़कर।
मैंने चुना स्वयं को।
मैं चुना ख़ुद को।-
तुम्हें आज लिखू
तुम्हें कल लिखू।
मेरा मन चाहे
हर पल लिखू।
वो जो लब से छूकर
दिल तक जाये।
तुझपर ऐसी इक
ग़ज़ल लिखू।
तुझे प्यार करू
तेरे साथ रहूँ
तुझे मंजिल तक
ले चल लिखू ।
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भीतर इतना कोलाहल क्यों है।
जब ऊपर से सब कुछ शांत दिख रहा है।
या फिर तुमने अपने मन के ऊपर भी एक कोहरा छा दिया है।
जिससे सब कुछ हो जाये धुंधला….
और कोई देख ना सके तुम्हारी परतें।
और तुम छिपा सको अपनी छटपटाहट।-
शरद ऋतु में वर्षा का आना कुछ यों होता है।
जैसे कोई उड़ेल रहा है ठंडे ठंडे बादलों के मटके।
ठीक वैसे ही जैसे एक बलखाती अल्हड़ सी
लड़की सिर पर ले चली है छलकती गागर।
सब कुछ कुछ धुंधला सा हो गया है।
जैसे पड़ गया है कोहरा नीरस यादों पर।
बूँदें हरे हरे पत्तों के रंगमंच पर थिरक रही है
और उनके पैरो के घुंघुरू कानों में खनक रहे है।
रह रह कर गरज रहे है गड़गड़ बादल जैसे
क्रोधित हो रहे हो अपने बेसुरेपन और अहंकार पर।
उस पर कौंधती है बिजली जो यूँ इठलाती है जैसे
माथे पर इठलाती है सुंदर सी टिकुली सावली सी दुल्हनियाँ पर।
और दूर से ही मोह लेती है सबको अपनी तरफ़।
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अक्सर मंजिल पर आकर ही मैं हार जाता हूँ।
छूट जाता है सहारा किनारों पर ही अक्सर।
अक्सर टूट जाता हूँ अपनों की बात से
रूठ जाती है ज़िन्दगी सहारों पर ही अक्सर।-
यदि तुम किसी को प्रेम में डालकर उसका तिरस्कार कर रहे हो तो इससे अधिक दयनीय कुछ नहीं हो सकता की तुम किसी को जिंदगी नही दे सके।
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