बड़ा मासूमियत भरा वो बचपन था
घर भी बनाते थे तो घर के अंदर-
सुनो वही लोग अक्सर मेरे दिल मे रहते हैं
जो मुझे ही मेरी खामियों का तस्करा करते हैं-
हुआ कुछ मुझ पे उसका असर भी नहीं!!
क्यों पर मुझे कुछ मेरी खबर भी नहीं !!-
और भी आज़माइशे हैं
अभी और सफर जाना है!
दूर है कहीं मज़िल तेरी
अभी और ठोकरे खाना है!
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सिर्फ दिल को ही क्यों सजा देते हो
ये कहाँ का इंसाफ है
आंखे नज़र और उसका लहजा
इन सब को भी शरीक-ये-तफ्तीश करो-
इस बड़े शहर मे जाने कितने घर हैं
जितने ऊँचे घर हैं उतने खाली घर हैं-
खुदा बनाया है अगर पत्थर को
तो उस पत्थर को खुदा समझो
न उम्मीद रखो न कोई आरज़ू उससे
पत्थर है वो उससे पत्थर की तरह रखो-
इंसान हूँ कोई फरिश्ता नहीं !
वो मुझको सब से जुदा समझ बैठें है!!
वो माफ़ करने पे राजी न हुए!
लगता है मुझको खुदा समझ बैठें है !!-
यूँ आंख बंद कर के ऐतबार न किया करो
प्यार करो बेहिसाब न किया करो
मिल ही जाएगे तेरा है जो
कुछ इबादत और शिद्दत से इन्तजार किया करो-