Prerna Chaudhary   (© प्रेरणा)
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Joined 9 October 2018


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YESTERDAY AT 11:55

उसके हाथों में सिहरन
आँखों में साहस था
मेरे सामने मेरे जीवन का
सबसे बड़ा और ख़ूबसूरत
विरोधाभास घटित हो रहा था,

मेरी ओर बढ़ाया गया गुलाब
उम्मीद की कलम पर टँका
अंतिम प्रश्न चिन्ह था,
जिसका उस हाथ से इस हाथ में आना
उसे विस्मयादिबोधक बना देता,

उसने मुझसे एक ही प्रश्न किया,
"इस गुलाब में तुम्हें क्या दिखता है,
मुहब्बत का मक़बरा या
प्रेमकथा की प्रस्तावना?"

"मुरझाने से मुक्त हो चुकी
महकती हुई ज़िन्दगी",
मैने उसके हाथ से गुलाब लेते हुए कहा।

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YESTERDAY AT 0:40

जो पक्षियों की उड़ान देख
उत्साह से भर जाता हो
मग़र पंखों की इच्छा का बोझ न सहता हो,
हवा के स्पर्श से जिसमें
साँसों का भार विचार बन उमड़ता हो,
जो अथाह पानी देख
जीवन की थाह तक यात्रा करता हो,
जो सागर को सतही
और बूँदों को गहरा समझता हो,
जो शास्वत होकर भी
'सदैव' से परहेज़ रखता हो,

ऐसे मन का मालिक होना
मुश्क़िल होता है
और दुर्लभ भी,
मानो असीमता ने
सीमाओं को अपना
अंगरक्षक बना लिया हो।

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18 APR AT 14:15

वक़्त बदलने से कब शख़्सियत बदलती है
बहुत हुआ भी तो बस हैसियत बदलती है

पूछने से तेरे और क्या ही होता होगा
कुछ भी तो नहीं बस कैफ़ियत बदलती है

मान लिया के बहुत कुछ बदलता होगा पर
झूठ बदलने से कब असलियत बदलती है

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18 APR AT 0:04

समय की पटरी पर ज़िन्दगी की गाड़ी चल पड़ी है, खिड़कियों के शीशे साफ़ कर लें और यात्रा में अदलते बदलते मौसम का मज़ा लें। कृप्या अधिक समझदारी से दूरी बनायें रखें अन्यथा शीशों पर भाप जमने व कुछ भी स्पष्ट न दिखाई देने जैसी समस्याओं का सामना कर पड़ सकता है।

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7 MAR AT 20:39

तुम सामने थे और लब जमे थे
अल्फ़ाज़ मेरी पलकों पर थमे थे,

दो चार बूंदें जो गालों से सरकी
लाखों बातें थी मेरे मन की,

जो रह गया था आँखों में पानी
कुछ थी कविता और एक कहानी,

दबाकर के पलकें जो आँसू निकले
थे गहरे मरासिम हुए जो छिछले,

ये अब गेरुआ जो रंग हो गया है
बुरा मेरी आँखों के संग हो गया है,

सपने हैं तेरे, तेरी ही चुभन है
जो पिघला है इनसे बस मेरा मन है।

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1 MAR AT 18:29

इतना बेफ़िक्र, अनहद और अल्हड़ होते हुए भी, इतनी सरलता से ख़ुद को अभिव्यक्त कर पाने के बाद भी और एक खुली क़िताब सा जीवन जीते हुए भी....ऐसा बहुत कुछ रह जाता है, जो किसी से बताया नहीं जा सकता, जताया नहीं जा सकता, जो अभिव्यक्ति के दायरे को लाँघ चुका होता है। जिन एक या दो व्यक्तियों के लिए हमें लगता है कि आख़िर में यहाँ हम सारा भारीपन उतार देंगे उनसे भी कुछ कहा नहीं जाता, शब्द मन मसोसकर मन के ही किसी कोने में दड़ खींचकर बैठ जाते हैं। यानी अंततः हम सब अकेले होते हैं। जीवनसागर का कोई न कोई टापू ऐसा होता ही है जहाँ कभी कोई नहीं पहुँच पाता और धीरे धीरे ये जगह haunted और wanted हो जाती हैं। अजीब है ना..अकेलापन अपने आप में इतना बड़ा सच है, इतना सच्चा है और फिर भी इसे अपनाना कितना मुश्किल है।

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28 FEB AT 22:05

मैंने देखा है कि लोग बाग कहीं कुछ पढ़ लेते हैं किसी का लिखा तो उससे प्रेरित होकर कुछ न कुछ लिख डालते हैं कभी कभी बिल्कुल वैसा सा ही तो कभी मुख्य ख़याल लेकर शब्द बदलकर लिख लेते हैं या जैसे भी बन पड़ता है।
मेरे साथ उलट है, मैं कुछ लिखा पढ़ लेती हूँ तो जब तक वो चीज़ याद रहेगी मैं उस पर नहीं लिख पाऊँगी, मन अलग ही कचोटता रहेगा कि ये मौलिकता के साथ छल है। इसलिए जब मुझसे कोई कहता है कि अगर लिखा नहीं जा रहा तो तुम पढ़ो, तब मुझे अलग ही उलझन होती है। अक्सर लेखन में अटकी लोगों की गाड़ी पाठन से पटरी पर आती है, और एक मैं हूँ जिसके लिए सबसे कामगार नुक्ता ही बेकार है।

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26 FEB AT 21:35

वो जिन्हें ख़ामोशी का ग़म पता है
शब्दों से नाराज़गी कम रखते हैं।

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20 FEB AT 0:04

तारे ज़मीं पर
होते नहीं पर
मुझको यक़ीं है
के तू यहीं है

सारा जहां हैं
सबकुछ यहाँ है
तुझसा मग़र ना
कोई हसीं है

(अनुशीर्षक में)

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28 DEC 2023 AT 22:36

बड़ा बेरंग मेरा रंगरेज़ होगा अब
उसे भी इश्क़ से परहेज़ होगा अब

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