इतना बेफ़िक्र, अनहद और अल्हड़ होते हुए भी, इतनी सरलता से ख़ुद को अभिव्यक्त कर पाने के बाद भी और एक खुली क़िताब सा जीवन जीते हुए भी....ऐसा बहुत कुछ रह जाता है, जो किसी से बताया नहीं जा सकता, जताया नहीं जा सकता, जो अभिव्यक्ति के दायरे को लाँघ चुका होता है। जिन एक या दो व्यक्तियों के लिए हमें लगता है कि आख़िर में यहाँ हम सारा भारीपन उतार देंगे उनसे भी कुछ कहा नहीं जाता, शब्द मन मसोसकर मन के ही किसी कोने में दड़ खींचकर बैठ जाते हैं। यानी अंततः हम सब अकेले होते हैं। जीवनसागर का कोई न कोई टापू ऐसा होता ही है जहाँ कभी कोई नहीं पहुँच पाता और धीरे धीरे ये जगह haunted और wanted हो जाती हैं। अजीब है ना..अकेलापन अपने आप में इतना बड़ा सच है, इतना सच्चा है और फिर भी इसे अपनाना कितना मुश्किल है।
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