हिंदी मेरी मातृभाषा है| हम सब ने भाषाओं को अपने हिसाब से अपनाया है|
भाषा ने भी बड़ी दिलचस्प तरीके से स्त्रीलिंग को अपनाया है!
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चिरुंगुन की चिंता
सर्द सुबह की आलस ओढ़े
बेटा अपनी अंगड़ाई तोड़े,
चिरुंगुन सा छोटा मन
उस मन में तीव्र त्रसन!
घर की बात अलग क्यों लगती है ?
अपनों से रौनक लगती है,
बाहर की सुंदरता, सजावट लगती है,
रेत पर लिखी, लिखावट लगती है !
सड़क किनारे , वह बच्चे स्कूल नहीं जाते ?
वहां सिखाएंगे कौनसी बातें अच्छी,
बतलाएंगे कौनसी बुरी,
पर कौन समझाए, क्या है मजबूरी ?
पिताजी, वह क्यों रोते हैं ?
बेरंग है सब, हर वस्त्र सफ़ेद!
उस शोक में बंधा,
जीवन और मृत्यु का भेद!
मुझे आपकी तरह बड़ा होना है!
अभी तुम्हें समझना है,
किन बातों को कहना है,
सुई तो चुभती है,
किन बातों को सहना है!
शक्ती, साहस की खोज में,
तुम भय से मिलोगे |
समय के रंगमंच पर,
तुम स्वयं से मिलोगे!
फिर समझोगे,
जैसे भूके को खीर पुरी,
वैसे जिज्ञांसु को जवाब ज़रूरी-
जैसी हो, खूब हो, तुझे तुझसे नहीं छाँटना!
जितना बाहों में समेटूँ, मुझे दूसरों में नहीं बाँटना!
लोग नहीं समझते, तुम भी नहीं!-
समय…
पुण्य पाप पूर्व पश्चाताप?
वर्तमान वन में,
मन विलीन, विलुप्त, विलाप!
सब ज्ञात।
समय सर्वश्रेष्ठ शिक्षक,
समय सर्वोत्तम रक्षक,
उसका उपयोग ही उपासना,
स्वरूप स्थाई शिव साधना।
जो भूत भविष्य को बाँध ले,
जो सब पर बीते, और बदले,
वह काल सिंचे कल्प वृक्ष को,
जिस पर कर्म, कर्तव्य का सार फले
सच्चा सारथी साजे,
जो सूई सब पर विराजे।
सदैव ही समय प्रमाण,
विनती न जाई रामबाण।-
It took me a demise to learn about acceptance.
It took a people’s departure to teach me about attachment & detachment.
When did I go so cold?-
डर
न देख असाध्य, न मुड़, जब मन किंकर्तव्यविमूढ़,
विचलित क्षण चीत बाँधना, स्वरूप स्थायी शिव साधना।
मन में विश्वास न हो,
वह विष में वास समान
सोच,
ए डर, मुझे ललकार , हर डर हर हूंकार!
बारिश बिजली बाढ़ बवंडर , बन बहादुर मन बुनियाद, या
बन खोखला ख़ाली खंडर, डर के दीमक करें बर्बाद!
अड़, लड़, उस जड़ को पकड़,
या देख अपना पतन, पतझड़!
बोल,
ए डर, मुझे ललकार , हर डर हर हूंकार!
हार, गिर और टूट बिखर, फिर उठ बन कुछ और निखर।
गर त्रसन मन में सोएगा, तु स्वप्न में फिर रोएगा!
डर कर मझधार हार खड़ा?
कायर! हिम्मत की धार बढ़ा!
चिल्ला,
ए डर, मुझे ललकार , हर डर हर हूंकार!-
इतर
चाँद सा चमक,
थोड़ी बाग की बहार,
हर ऋतु की रौनक़,
उसपर धुँध सवार!
सब भाते हैं मन को, तुम भी भाते हो।
झरोखे पे फुलदान हो,
और, सर्द सुबह की धूप,
तेरी छिपी मुस्कान में,
चाय का रंग रूप!
बंद आँखों में दिखते हैं, तुम भी दिखते हो।
तुम जैसी हो, खूब हो।
तुझसे तुझको नहीं छाँटना!
जितना बाहों में समेटूँ,
ये मुझे दूसरों में नहीं बाँटना!
लोग नहीं समझते, तुम भी नहीं!
तुम्हें प्यार भरा पत्र है।
हम ग़र न हो मौजूद,
जानिए! प्रेम एक इत्र है,
उसका एहसास ही है वजूद।
ख़ुशबू मुझे पसंद है, तुम भी पसंद हो।।-