आँखें, चेहरे, लब, जुल्फ़ सब ख़ामोश रह गए,
अब तू आ भी गया तो तुझे खुदा बनाने नहीं आएंगे
माना, कि छत पे धूप इंतज़ार करता होगा तेरा
हम अब बार बार सीढ़ियाँ उतरने नहीं आएंगे
केह दो अपने शहर के हवाओं से कि ज़रा तहज़ीब में रहे
कि, हम अब छत पे गिले कपड़े सूखाने नहीं आएंगे
तराज़ू में तोलता होगा, वो मेरा ज़ख्म भर-भर के,
केह दो उनसे, हम अब बटखारे बनाने नहीं आएंगे!
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