मैं अपने एकांत में ले आता हूँ स्मरण मे उन सुनहरे क्षणों को जो बीत चुके हैं और बीत चुका है ओज मुख का केवल बचा है तो सिर्फ सूखे सुर्ख अधर, यूँ काल का प्राप्त होता रंग और नतमस्तक ग्रीवा, जो स्वतः ही झुकी है, हर बार केवल अश्रु ही नहीं होते दुःख दर्शाने के साधक कभी कभी मौन भी दुःख का पर्याय होता है, ग्लानि तो है और आजीवन रहेगी भी क्यूंकि धैर्य मेरा क्षीण हो चुका है।
पीड़ा ये रहेगी समझ न सका, पीड़ा ये भी रहेगी समझा भी न सका।
मैं सम्मान करता हूँ सदैव तुम्हारे उन फैसलों का जो लिए गए हैं मेरे लिए, विश्वास हो तुम मेरा, क्यूंकि मे मानता हूँ पत्थर से अधिक चरित्रों को, और अधीन हूँ मैं, अनैतिक नहीं। याचना जब अधिक होने लगती है तो यातना का रूप ले लेती है, मैं और अधिक यातनाएं नहीं दे सकता।
अंत में यह कि हो तो तुम मेरे राम
प्रीत
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