प्रबल मिश्रा 🖤   (Depth of heart)
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Joined 18 September 2020


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Joined 18 September 2020

कितना भी मैं कर लूं कोशिश, कुछ भी कर लूं
Text, seen कर करके छोड़ा जाता है

Ignore किया जाता है कुछ तो यूं मुझको
Spam call कोई जैसे काटा जाता है

ज्यों ज्यों भौहें तान के देखें वो मुझको
थर थर डर से बदन कांपता जाता है

दो भौंहे और बीच में छोटी काली बिंदी
हाय! नज़र पर चार चांद लग जाता है

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क्या गजब के नज़ारे नज़र आयेंगे आज दीदार में,
जब भूख से... प्यास से...तड़पता एक "चांद"!
बैठेगा दूसरे चांद के इंतजार में !

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इक बुढ़िया जो चांद पे कपड़ा बुनती है,
तीन रंग का ध्वज उसने तैयार किया है

मन गर्वित है, मन हर्षित है, है देश दिवाली में डूबा
विक्रम ने जो उस धरती पर रफ्तार लिया है

युद्ध छिड़ा था पिछली बारी इसी हार से
इसी हार ने मान दोबारा हार लिया है

सब अधरों से अब "प्रबल" ध्वनि में गूंज उठी है
जय हो "भारत माता की" ललकार किया है

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पूरी पागल दिखती हो,
कौनसी class में पढ़ती हो?

पेट में दर्द नहीं होता?
इतना कैसे हंसती हो?

Short tops जचते हैं तुमपर
पर साड़ी में अच्छी लगती हो!

खुद तो चांद के जैसी हो,
फिर अंधेरे से क्यों डरती हो?

आदर्श बैठा है न, तुम्हारे लिए
क्यों ही चिंता करती हो?

इनमे से कुछ भी ले लो न यार
सच में बहुत नखरे करती हो

देखो...! तुम मतलबी हो
अरे! मजाक है 🥰, तुम बहुत अच्छी लडकी हो

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तू चंद्रकला की चपल चाल, चलचित्र चारु चंचल समान
तू अनघ अनश्वर, अंतरिक्ष अंतस अनन्त जाज्वल्यमान्

तू सरस, सरल, सामान्य स्वयं में शुद्ध शांत सरिता जैसी,
तू प्रेम पत्र के प्रथम पृष्ठ पर लिखी हुई कविता जैसी

तू कला काव्य की करुणा है,तू कर्म काल के कलियुग का
तू अवंतिका, अनुराग, अभय, अरिहंत नए नूतन युग का

तू बन करके फोटान मेरे मन के दर्पण में बिंबित है
फिर भी ऋणात्मक आवेशों को लेकर क्यों अवसादित है।

यह शब्दकोश मेरे सारे, तुझको हे प्रिये समर्पित है.
गीत छंद कविता मेरे यह सारे तुझको अर्पित है

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मेरे घरवाले आज सुना रहे हैं खरी-खरी
लगता है किसी की लगी है सरकारी नौकरी

काला फिर गोरा दिखाई देने लगता है
आदमी का रंग बदल देती है सरकारी नौकरी

लड़के में लड़का ना हो तो कोई मसला नहीं
बस होनी चाहिए कोई भी सरकारी नौकरी

किसी के घर पर राशन पहुंचाया इसने...
तो किसी की मुहब्बत खा गई सरकारी नौकरी

छोड़ दे यूँ लिखना अब उसके लिए "आदर्श"
दुआ कर कि मिल जाए कोई सरकारी नौकरी..!

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यदि तरल सुसज्जित चक्षु मौन हैं
अधरों पर संताप धरा...!

व हृदय विवादित है , कर्मों से
जीवन में अभिशाप भरा?

है कर्म अधर्मी, धर्म अधर्मी
उर ईर्ष्या का सैलाब भरा?

तो तजो घिनौने कर्म सभी
तुम सत्य ’सनातन’ अपनाओ

’गीता’ से जीवन सरल करो
तुम ’श्री राम’ के गुण गाओ

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"बीमारी का पहला ही दिन जहाँ, सर पकड़ लेता है
जिसमें एक अच्छा ख़ासा आदमी, बिस्तर पकड़ लेता है
एसी हालत में भी माँओं को आराम क्यों नहीं मिलता
जिनका काँपता हुआ हाथ भी cooker पकड़ लेता है।

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कोई भी काम, उनके इश्क में मुश्किल नहीं है
मगर खुशियां , अभी पागल को सब हासिल नहीं है
हूं रखता हांथ जब - जब मैं उनके नर्म "दिल" पर...,
मोहतरमा कहती हैं, "हाथ हटाओ पागल ये मेरा दिल नही है"

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