प्रभाकर प्रभू   (©प्रभाकर "प्रभू")
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Joined 4 February 2018


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ज़ीस्त का कुछ नहीं भरोसा है
आज गुलशन है कल उजड़ना भी

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घर मेरा घर तभी लगता है
दर्द ग़म जब नहीं रहता है

रोज़ यादें तिरी आती है
रोज़ इक गुल यहाँ खिलता है

है भरा आँख आँसू से पर
जब बहा ख़ून ही बहता है

फलसफ़ा इश्क़ का क्या हुआ
दिल किसी से नहीं मिलता है

डर रहा है अभी आदमी
पर ख़ुदा से कहाँ डरता है

क्या नहीं है मिरे पास पर
बिन तेरे कुछ नहीं लगता है

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ये कहानी नहीं हक़ीकत है
दर्द का नाम ही तो फुरकत है

क्या मुहब्बत वही मुहब्बत है
या तिरी मुझ पे भी इनायत है

हाल मैं क्या कहूँ तुझे दिलबर
घर से अच्छा नहीं ये गुरबत है

आइना मुझ से रोज़ कहता है
मैं भी रो लूँ अगर इज़ाज़त है

जोर से हँस रहा मिरा क़ातिल
पर नहीं सुन रही अदालत है

बारिशों में सभी वो दीवारें
डर रही है खुली हुई छत है

दिल लगाना भी तोड़ जाना भी
ये भला किस तरह की आदत है

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क्यों खफ़ा है मुझ से आईना मेरा
अब तो सुनता ही नहीं साया मेरा

दिल को मैंने कर दिया यूँ बेदखल
मानता था ही नहीं कहना मेरा

किस तरह आऊँ ख़ुशी नज़दीक मैं
है खड़ा ग़म रोक कर रस्ता मेरा

क्या बताएँ दर्द कितना हो रहा
और गहरा ज़ख़्म है कितना मेरा

आँख से आँसू नहीं दरिया बहा
तब जा के दिल कुछ हुआ हल्का मेरा

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जी सके हम न जब बिछड़ कर के
हो गए हम तो यार पत्थर के

बात इतनी हुई कि सच बोला
फिर तो दुश्मन हुए शहर भर के

राह हमको दिखा दिया जब से
हो गए हम मुरीद रहबर के

जब सदा सुन नहीं सके मेरी
आह दिल ने भरा तड़प कर के

अब हमें रात दिन बचैनी है
ख़्वाब ऐसा गया दिखाकर के

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इक दफ़ा कोई मुहब्बत में फ़ना हो कर कहे
कट रहा है किस तरह ये इश्क़ का अब पर कहे

जा रहे हो छोड़कर ये घर ज़मीं ये आसमाँ
क्या कहें हम क्या कहे वो और क्या ये घर कहे

रखने को अब रख दिया है सामने दस्तार ये
हाँ मगर ये अब न होगा हम झुका के सर कहे

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आँख आँसू से जब भरा होगा
दर्द कितना उसे हुआ होगा

बैठते नींद आ गयी उसको
यानि वो आज फिर थका होगा

भर रहा है मिरा ज़ख़्म यारों
सोचिये किस तरह हरा होगा

तुमसे इक बात कह रहा हूँ मैं
तुम जहाँ घर वहीं मिरा होगा

क़त्ल कर के कहाँ छुपोगे तुम
एक ना एक दिन सज़ा होगा

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सलामत रख ख़ुदा उसको दुआ है दीद हो जाये,
मिले जब मुस्कुरा कर यार मेरा ईद हो जाये।।

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प्रभाकर

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Prabhakar

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