दहशतों के कारिंदों ने ख़बर भिजवाई है
अबके इंसान की इंसानियत से लड़ाई है
ज़रा दूर से देखना जब देखो अपनों को
सब के हाथों में खंजर, मुँह में मिठाई है
सियासत ज़हर है, अमल नहीं ये कोई
हुकूमतों ने लाशों से महफिलें सजाई है
आसमान रोने लगा बरबस ही हँसकर
जब-जब हमनें दिल में खुशी बसाई है
उधारी साँसों की ही थी जिंदगियों पर
किश्तों में ही सही पर सबने चुकाई है
मेरी ख़ामोशी कोई बयां दे भी तो कैसे
न तो मौत आई, न ज़िंदगी बन पाई है
-