Praveen   (ज़ौक़ | Zouq)
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देखता बहुत कुछ हूँ ज़ौक़, लिखता मगर कम हूँ ।
Joined 6 November 2016


देखता बहुत कुछ हूँ ज़ौक़, लिखता मगर कम हूँ ।
Joined 6 November 2016
2 AUG 2020 AT 23:58

चार दिनों का साथ हमारा फिर हम क्या और तुम भी क्या हो
जो यादें हैं इन लम्हों की उसमे जीवन काटा जाए
तेरे साथ बिताया एक दिन चार पहर में बंट न सकेगा
तेरी इक मुस्कान को आओ चार पहर में बांटा जाए

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1 AUG 2020 AT 22:58

एक हद तक है मेरी सोच, कितनों से मिले
कुल जमा चार बेवकूफ़ मेरे जनाज़े में मिले

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28 JUL 2020 AT 20:39

प्रेम का एक छोर है भय
किसी को खो देने का,
और दूसरा है उन्माद,
उसी को मुक्त कर देने का

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26 DEC 2019 AT 11:00

––– ग्रहण –––

सूर्य के तीक्ष्ण आवेश में
चंद्र की उपस्थिति नगण्य होना
वास्तव में सूर्य ग्रहण है

ठीक वैसे ही, जैसे
आवेश में आ कर किसी से दुर्व्यवहार करना
उसका नहीं, वास्तव में आपका ग्रहण है

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9 NOV 2019 AT 11:46

बच्चों की पेशानी पे लकीरें नही होतीं
फ़िक्र वैसे भी सयानों का नशा ठहरा

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23 OCT 2019 AT 21:46

विजय क्या है,
बस ये है सत्य
(रचना अनुशीर्षक में)

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27 DEC 2018 AT 8:30

स्त्रियां थक गयी हैं दुर्गा बन के मगर
वो ब्रह्मा हैं, ये सच उनसे छुपाये रखो

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12 DEC 2018 AT 17:24

---: इम्कान :---

वो शायर तन्हा होते हैं
जो नज़्म अधूरी लिखते हैं
कुछ कच्चा रेशम छोड़ते हैं
किसी और सिरे में बुनने को
वो अक़्सर चुप ही रहते हैं
कोई नई कहानी सुनने को
वो कहते हैं ये मुमक़िन है
कहीं और ख़तम हो ये किस्सा
वो कहते हैं ये मुमकिन है
दे दें सबको सबका हिस्सा
वो एक मुकम्मल ख़ाम सा जो
सच से भी ज्यादा कमसिन है
वो नज़्म अधूरे वक़्फे सी
मुमकिन हो, ऐसा मुमकिन है

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22 NOV 2018 AT 15:27

सत्य! विशेषण नही, संज्ञा है
(रचना अनुशीर्षक में)

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11 NOV 2018 AT 14:39

धूप रंग हर राग का, धूप नहर की नाप
धूप चपलता चित्त की, धूप ढोल की थाप
धूप पोटली इत्र की, धूप नार श्रृंगार
धूप खिले तो जग चले, नदिया जंगल पार

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