चार दिनों का साथ हमारा फिर हम क्या और तुम भी क्या हो
जो यादें हैं इन लम्हों की उसमे जीवन काटा जाए
तेरे साथ बिताया एक दिन चार पहर में बंट न सकेगा
तेरी इक मुस्कान को आओ चार पहर में बांटा जाए
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एक हद तक है मेरी सोच, कितनों से मिले
कुल जमा चार बेवकूफ़ मेरे जनाज़े में मिले
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प्रेम का एक छोर है भय
किसी को खो देने का,
और दूसरा है उन्माद,
उसी को मुक्त कर देने का
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––– ग्रहण –––
सूर्य के तीक्ष्ण आवेश में
चंद्र की उपस्थिति नगण्य होना
वास्तव में सूर्य ग्रहण है
ठीक वैसे ही, जैसे
आवेश में आ कर किसी से दुर्व्यवहार करना
उसका नहीं, वास्तव में आपका ग्रहण है
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स्त्रियां थक गयी हैं दुर्गा बन के मगर
वो ब्रह्मा हैं, ये सच उनसे छुपाये रखो-
---: इम्कान :---
वो शायर तन्हा होते हैं
जो नज़्म अधूरी लिखते हैं
कुछ कच्चा रेशम छोड़ते हैं
किसी और सिरे में बुनने को
वो अक़्सर चुप ही रहते हैं
कोई नई कहानी सुनने को
वो कहते हैं ये मुमक़िन है
कहीं और ख़तम हो ये किस्सा
वो कहते हैं ये मुमकिन है
दे दें सबको सबका हिस्सा
वो एक मुकम्मल ख़ाम सा जो
सच से भी ज्यादा कमसिन है
वो नज़्म अधूरे वक़्फे सी
मुमकिन हो, ऐसा मुमकिन है-
धूप रंग हर राग का, धूप नहर की नाप
धूप चपलता चित्त की, धूप ढोल की थाप
धूप पोटली इत्र की, धूप नार श्रृंगार
धूप खिले तो जग चले, नदिया जंगल पार
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