तुम शहर हो आए
(१ भाग)
// वर्णित-
Whenever rain arrives, uninvited,
unapologetic, it drapes my
grandmother’s terrace
in a damp sari of memory.
I stand at the edge, barefoot.
The concrete is cool against my soles,
the water stubbornly pooling in
pockets left uneven by time and neglect.
From inside, my mother shrieks,
"Wear your chappals!
Don’t dirty your feet again!"
But I don’t.
The wet feels cleaner than
most dry things in this house.
// Captioned-
एक दुनिया है, शायद बहुत ही जुदा,
जहाँ तुझसे मोहब्बत की जाती है,
जहाँ तेरा नाम ना लिया जाए तो
सुबह अधूरी सी लगती है।
तेरा एक घर है वहाँ —
बड़े लोहे के दरवाज़े वाला,
जिस पे चौकीदार पहरा देता है,
और एक छोटा सा झरोखा,
जिससे हम जैसे लोग
ताका-झांकी कर लिया करते हैं।
// वर्णित-
अब जब मैं घर वापस आ गया हूँ, तो हर रात फ़ोन करके यह बताने की ज़रूरत नहीं रह गई कि "आज कद्दू की सब्ज़ी है और कल भिंडी। तंग आ चुका हूँ।" अब तो जो मन करे, वही प्लेट में सज जाता है। माँ भी अब खाना दिल से, चाह से बना रही हैं। पापा ने एक दिन कहा था, "तेरे जाने के बाद खाने में नमक कभी बराबर का डल ही नहीं पाता था तेरी मम्मी से।" अब खाना ठीक है, संतुलित, सधा हुआ। माँ भी कभी-कभी ठिठोली करती हैं और पूछ बैठती हैं, "फिर मेरी ज़्यादा याद आई या मेरे खाने की?"
// वर्णित-