छाई इस भीड़ में अब तन्हाई है दूर दूर तक,
जीने से हो गई अब रुसवाई है दूर दूर तक।
रुआँसा गला है, अँधियारे घेरे है आँखों को,
नहीँ कोई किरण नज़र आई है दूर दूर तक।
घर भी है, बार भी, दोस्त भी हैं, यार भी,
गलियाँ मगर खाली नज़र आईं हैं दूर दूर तक।
मेरे जिस्म को खब़र नहीं थी मेरी रूह लुटने की,
किसने शहर में खब़र फैलाई है दूर दूर तक?
रोका, छिपाया, आह भी नहीं किया कभी दर्द से,
ये किसने मेरी चीख पहुँचाई है दूर दूर तक?
ग़म गटकने की ख्वाहिश ने कई दरों पे आवाज़ दी,
मगर नहीं किसी साकी ने पिलाई है दूर दूर तक।
इस भँवर में क्या पतवार, कौन माँझी, कहाँ किनारा?
कोई बताए तो, ये कौनसी लड़ाई है, दूर दूर तक।
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