यूँ ही रातों को बदनाम न करो, कलेश और कहर भरी धूप में भी होती है। यूँ ही अपनों पर मोहब्बत लूटाया न करो, ज़हर और खंजर कभी भी चल सकती है। यूँ ही जाने की ज़िद किया न करो, मग़रूर ज़िन्द्गी कभी भी थम सकती है। यूँ ही कलम को रोका न करो, कहानी और शेर अच्छी चल रही है, रुकी हुई ठीक नहीं लगती है।
कई उलझनों के धागों से मैंने एक सुलझन बनाया है, आज खुद को खुद से थोड़ा सा बेहतर पाया है। कतरा कतरा भले ही न जाने कितने गमों को अन्दर छुपाया है, सफर के इस पायदान पर मैंने मंज़िल को थोड़ा करीब पाया है॥
आशिकी होती तो सह लेते ऐसे सितम, खरोच कितने भी होते करवाते मरहम| पर ये कैसी उलझन में हमें डाला तुमने जनाब, कि खातिरदारी करवाकर नहीं देते खातिरदारी का हिसाब।
कुछ गीतों से, कुछ गज़लों से ईश्क लगाकर देखिए, इनमें सज़ा है, इनमें मज़ा है, इनसे खता है, इनकों दिल का राज़ पता है, और जितना इन्हें सुनों उतना सुकून से नाता है।