Prashant Singh   (प्रशांत सिंह 'रवि')
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Joined 22 January 2020


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24 JUN 2022 AT 9:42

जनाब, ऐसे ही नहीं सीखा मैंने हीरे का मोल,
आखिर, एक पत्थर को पाने में मैंने कई हीरे जो गंवाए हैं।— % &— % &

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14 JUN 2022 AT 7:57

एक दिन होंगे,
ये खामोश होंठ,
तुम चाहो कि,
ये शब्द कहेंगे?
तो नहीं,
ये शब्द नहीं,
बस शिकायत करेंगे,
खामोशी से,
कि जब कर रहे थे,
ये होंठ इज़हार,
तब तुमने सुना नहीं,
और देखो आज,
जब तुम सुनना चाहते हो,
तो ये होंठ सदा के लिए,
खामोश हो गए।

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13 JUN 2022 AT 9:16

मुझे है पता,
तुम्हारे होठों के शब्द,
जो जाने क्यों फूटते नहीं,
या फिर है कोई,
वो मेरा ही बना हुआ खयाली जाल,
तुम एक बार बस कह दो,
जो है दिल में,
फिर या तो ये जाल जलकर,
भस्म हो शेष होगा,
या फिर होगा अमर,
संसार के अंत तक,
वास्तविकता की कसौटी पर।

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7 JUN 2022 AT 8:56

मैं याचक, आज तुम्हारे समक्ष,
याचनाओं की गठरी लिए खड़ा हूं,
याचनाएं,
जो अधरों पर अब तक,
सकुची सी ठिठकी हैं,
इंतजार में हैं सुनवाई के,
कि, बस तुम एक बार अपनी अंगुली,
हटा दो मेरे अधरों से,
फिर पाओगी,
कितनी ही याचनाएं पड़ी हुई हैं,
इसी तरह अनसुनी बिखरी,
जिनपर बाकी है,
तुम्हारे अधरों के मोहर का लगना।

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27 MAY 2021 AT 0:31

याद है मुझे,
पगडंडियों से होकर जब गुजर था,
तो कुछ नीबू पर छिड़के सिंदूर पड़े मिले,
सहसा याद आया,
दादी कहती थीं इसे जादू टोना,
पर क्या उन्हें नहीं लगता टोना,
जिनका कोई नहीं दुनिया में,
शायद इसलिए भी कि,
उनके पास खोने के लिए कुछ नहीं।

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24 MAY 2021 AT 23:47

रात सोती नहीं क्यूं तू,
जागकर बस तड़पती,
और तड़पाती है,
जाने कितने ही वियोग में डूबे,
यक्ष और यक्षिणियों को,
जो भटक रहे हैं,
हिम की भुजाओं में,
किसी कुबेर के श्राप से,
और रोज रात को आ शिखरों पर,
अपने अपने भेजे पत्रों का,
करते हैं सब्र बांधे इंतजार।

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29 APR 2021 AT 23:49

ज़िन्दगी के कुछ मोड़ ऐसे भी थे,
जिन्हें हम भूल जाने को बहाने बनाते हैं,
पर हम रुखसत होकर भी जाएं कहां,
वो मोड़ अब हर मोड़ पर जो याद आते हैं।

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29 APR 2021 AT 21:18

तुम्हारी लत थी लगी कुछ,
भूला बिसरा जिसमें सब कुछ,
आज फिर वही लत की तलब है,
आ जाओ कि एक बार फिर,
सब कुछ भूलने की तलब है,
आओ अब, तो कुछ वक्त उधार देना,
चुकाऊंगा, इसे ना फर्जीवाड़ समझना,
चुका दूंगा मैं सूद लगाकर पाई पाई,
वक्त देना तो बन जाऊंगा तेरी परछाईं,
छलकते जज़्बात मेरे,
कबसे बह जाने को उमड़े हैं,
आ जाओ एक बार,
ये आंखें कबसे तेरे दीदार को तरसे हैं।

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28 APR 2021 AT 3:29

ढल जाएगी ये रात भी,
यूं हौले से कहीं,
किसी चांदनी तले,
पर कैसे ढलेगी वो रात,
जो ज़हन में हर वक्त,
ज़हन को डुबो रही है,
खुद में।

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28 APR 2021 AT 1:44

यह पाषाढ़ भी जगता,
तड़पता रैना बीते,
पर नहीं पाता कोई आहट,
इसकी सिसकियों का,
क्यूंकि हर पल्लव डाली,
मदमस्त सोया होता है,
अपने प्रेयसी के आलिंगन में,
सब कुछ भूल बिसरा कर,
और यह पाषाढ़ रजनी तले,
गरम आहों में जलता,
चांद को निहारते बिता देता है,
पूरी रैन एक ठंड हवा की चाह में,
जिसमें लिपटा हो,
पाषाढ़ को पिघलाने वाली,
वह करुणा से भरी,
किसी अपने की भावविव्हलता।

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