भीगी रात और अंजान सा समय, कमरे में अंधेरों का जलसा, खिड़कियों से कई टुकड़ों में टूट कर आती हुई कमज़ोर सी रौशनी।
गुलज़ार यूं ही नहीं नशा रखते हैं माचिस की डिब्बियों में। उसकी आग के बिना सिगरेट भी एक नाकाम सी हसरत लगती है, ज़िंदगी के बिना जले मज़ा कहां आता है? और बिना जले कैसे आएगी इतनी हिम्मत की बुझा दें ज़िंदगी को आखिरी ड्रैग के बाद अपनी शर्तों पर।
-
मुझे बुद्ध नहीं होना, क्योंकि दुनिया को राह दिखाने के लिए मैं नए अश्रुओं के नही रास्ते नहीं बना सकता यशोधरा के गालों पर।
एक संसार को बचाने के लिए एक संसार को त्याग सकना नहीं हो पाएगा मुझसे। जीवन के आसान सवालों के उत्तर ढूंढने के बाद तुम्हारे प्रश्नों से भाग पाना बेहद कठिन हो जाएगा। आगे चलते रहना आसान हो सकता है पर जब याद में तुम्हें पीछे पाऊंगा तो कैसे उत्तर दे पाऊंगा अपने अंतर्मन को कि तुम्हारी चुप्पी पूछेगी की साथ क्यूं नही लिया।
मैं बुद्ध नहीं हो पाऊंगा क्योंकि भगवान होकर तुम्हारे साथ अन्याय करना भगवान की छवी से अन्याय होगा।-
मेरी ये ख्वाहिश है कि मैं वो क़िरदार लिखूं जिसे तुम, जब भी अकेला महसूस करो, गले लगा लो।
तुम्हे वो हिचक न हो जो तुम्हें मुझे गले लगाने पर होता।
तुम कर सको उससे वो सारी बातें जो तुम्हें मुझे बताने में असहज लगे।
तुम बहा दो अपने सारे बांध और वो तुम्हें बहने दे आज़ाद लहर की तरह।
मेरी ये ख्वाहिश है कि तुम एक क़िरदार लिखो,
अपनी तरह!!-
जब लिखते हो तो खुद से लगते हो,
वरना हर वक़्त चुप से रहते हो।
बातें किया करो दुनिया जहां की,
ज़मीन की पहाड़ों की
समंदर की आसमां की।
के इन बातों से नाखुदा से लगो;
ये इल्तेज़ा है कोई जबरदस्ती नहीं,
कभी कभी लिखते वक़्त मुझसे लगो।-
सुनो, वो रोज़ शाम को बालकनी में कॉफी की दो मग के साथ आसमां में जहाजों को गिनने का जो मेरा ख्वाब है ना, वो चाहता हूं कि इसी जन्म में पूरा हो जाए !
तुम उंगली बढ़ा कर उन्हें छुपाने की कोशिश करो और वो उड़ते हुए उनके बीच से निकल जाया करें।
फिर हम यूं लड़े कि इस वाले से यहां और उस वाले से वहां जाना है, कॉफी का मग खाली और हम भर जाया करें,
एक और दिन की तैयारी में।-
तुम्हारे होठों से अपना नाम,
लोगों को अमृत चखते सुना था;
खुद अमृत हो गया मैं।-
तुम मुझसे पा सकती हो
करोड़ों स्मृतियां,
लाखों कविताएं,
हजारों तारीफें,
और असीमित प्यार;
मैं तुमसे लेना चाहता हूं तुम्हारा भय।-
सुनो, वो जो गंगा किनारे मिलने का वादा था तुम्हारा, गंगा भी वहीं है, घाट भी वहीं और मैं?
मैं कहां हूं?
कभी सोच कर देखना, जिंदगी रुकी थी रुकी है और रुकी रहेगी।
-
तेरी महफ़िल से जो उठे,
कुछ तराने याद आए।
तेरे झूठे बहाने याद आए,
कुछ अपने फसाने याद आए।
जिसे डाल आए थे दरिया में,
वो ज़माने क्यों न जाने याद आए।
यूं तो बैठा हूं गैरों में पर
चेहरे देखे तो जाने पहचाने याद आए।
कभी देखा था परवानों को जलते हुए,
अब जो लगी है आग तो
जलते परवाने याद आए।
आइना जो दाग दिखाता है तो
ज़ख्म नए पुराने याद आए।
-
हम उस नदी के साथ लुढ़क कर आए पत्थर पे पैरों को पानी में डाले बैठ पहाड़नुमा ज़िन्दगी के बीच बहते हुए निकलने के सपने सजा रहे थे।
आशा जी रेडियो पर गा रही थी
"क़तरा क़तरा मिलती है,
क़तरा क़तरा जीने दो,
ज़िन्दगी है बहने दो।"
किसी ने पानी छिड़क कर ख़्वाब तोड़ दिया।-