Prashant raheja समर्पित शून्य   (समर्पित शून्य)
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Joined 16 January 2019


Joined 16 January 2019

बहुधा दुख है प्राप्त जीवन में
किंतु श्वास साधन ही हितकारी है

हमें कष्टों ने जीवीत रक्खा हैं
हम कष्टों के भी आभारी हैं

निज सरल सहज ही सार्थक
केवल सरल होना ही दुश्वारी है

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परेशान है परिंदे तमाम दश्त के
के बागडोर है सैय्याद सम्भाले हुए

अब चरागों के माथे पर भी शिकन है
तीरगी के मातहत उजाले हुए





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ये किस जानिब जख्म सहलाए गए
खुश्क़ आंखो को सावन दिखाए गए

अब तू है किसी स्याह याद सा मेरे नसीब में
अब नाबीनो को रंगरेजी के गुर बताए गए

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वो इस तरह क़िरदार संवारता है
वो आइनो में भी प्त्त्थर उतारता है

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गमख्वारों की सोह्बत में गम मिलते है
चारागरों की सोह्बत में जख्म मिलते है

तेरी तलाश में एक अर्सा भटका हूं मुस्ल्सल
तेरे कदमों के निशां पर मेरे कदम मिलते है



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तेरी निगाहों के फसाने मांगती है
हां ये बीनाई ख्वाब पुराने मांगती है

सब बेहतर होने को जहाँ तमाम घूम आया
हैरां हूं रूह तेरी गलियों के ठिकाने मांगती है

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आज किसी नये ज़िक्र पर पुराना अज़ाब आया है
अश्क़ है ताज़ा मगर फिर पुराना ख्वाब आया है

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सहरा की प्यास को कतरों का तलब्गार क्या देगा
के सूखी मिट्टी को चाक भला क़िरदार क्या देगा

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जो जीया तुझ सा उसे तेरे ज़िक्र के अल्फाज़ क्या दीजे
नाबीना आखों को रंगरेजी के ख्वाब क्या दीजे

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माशरे की समझ से बाहर हूं मैं
हाँ हवा सा इक किरदार हूं मैं

गर पतंगो को हूं कुछ पसंद
तो चिरागों को दुश्वार हूं मैं

कायदे से सब में कब का बट चुका
तेरे हिस्से का रूहानी अख्तियार हूं मैं

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