Prashant Mishra   (Prashant Mishra)
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Joined 14 November 2017


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Joined 14 November 2017
7 JUN 2021 AT 19:15

तुम्हारी आंखों में यूं डूब जाना है मुझको,
बड़ी दूर तलक जाना है मुझको

वो फुर्सत की हसीं और बेवजह के झगड़े,
एक सुकून भरी चाय को होंठों से लगाना है मुझको

दुआ में मांग लाया हूं कुछ बुरा वक्त अपने लिए,
जिंदगी अब तुझे कुछ आजमाना है मुझको

बहुत से किस्सों में बट के रह गई है कहानी मेरी,
किसी माला में पिरोकर उन्हें, साथ लाना है मुझको

तुम्हारी आंख का काजल और वो बातें तुम्हारी,
खूब याद है वो बीता हुआ जमाना मुझको

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22 MAR 2021 AT 20:58

मतले सी ज़ुल्फ तेरी, नुक्ते सा वो तिल है
रंगत पे तेरी कुछ हम लिखेंगे किसी दिन।

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26 JAN 2021 AT 18:54

अना फिर कुछ इस तरह जीती है दुनिया में,
हर कोई नकाबों पे चेहरे बनाए चल रहा है।

सेकने आए हाथ वो सब जिन्हें अपना समझता था,
खबर ऐसी जो फैली की मेरा घर जल रहा है।

तुमसे बिछड़ कर मैं जिंदगी से कुछ इस तरह मिला,
कि लम्हें थम से गए है और वक़्त चल रहा है।

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26 NOV 2020 AT 21:37

हमको दिल का हाल सुनाकर रोएंगे,
इक दिन हमको गले लगाकर रोएंगे।

जिस दिन पछतावे की मटकी फूटेगी,
हम मोहन वो राधा जैसे रोएंगे।

महीनों तपते हैं धरती से हम और वो,
ना जाने कब बादल बनकर रोएंगे।

हमें देखकर दिल की टीस छुपाते वो,
सच में दिल जब रोएगा, वो रोएंगे।

हंसना छोड़ दिया है हमने कुछ दिन से,
डर है हस्ते हस्ते फिर हम रोएंगे।

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22 APR 2020 AT 20:21

एक दिन तुमसे मिलकर कहूंगा यही,
तुमने समझा नहीं, हम समझते रहे।।

वक़्त के इस भयावह समर में हुआ,
यूं हमारा तुम्हारा मिलन इस तरह।
इक नदी के किनारे दो जैसे थे हम,
बीच अपने समेटे हुए सारे गम।

चाह सागर की जिसको, हम है ऐसी नदी,
तुमने पूछा नहीं, हम मुकरते रहे।।

एक दिन तुमसे मिलकर कहूंगा यही,
तुमने समझा नहीं, हम समझते रहे।।

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17 DEC 2019 AT 13:56

वक़्त के साचे में मैं यूं ढल रहा हूं,
अपनी परछाई के भी पीछे चल रहा हूं।
अरमानों की मुट्ठी में बंद मेरी एक दुनिया है
मै रेत के जैसे उससे फिसल रहा हूं।

वो मिलता है मुझसे अक्सर,
जैसे मिलता है दरिया किसी प्यासे को।
वो मुझे देख कर साहिल को छोड़ देता है,
मै भी फिर प्यासा ही आगे बढ़ रहा हूं ।

वक़्त के साचे में मैं यूं ढल रहा हूं,
अपनी परछाई के भी पीछे चल रहा हूं।

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31 OCT 2019 AT 0:13

वक़्त के साचे में मैं यूं ढल रहा हूं,
अपनी परछाई के भी पीछे चल रहा हूं।

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25 JUL 2019 AT 23:19

सवाल था उस पेड़ का जो हमने साथ मिलकर लगाया था,
सो हम दिन रात आती आंधियों से लड़के बैठे हैं।
और जिस खुशी से वो हमसे दूर होकर गम मना रहा है,
लग रहा है कि कहीं और नहीं हम उसके दिल में बैठे हैं।

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1 JUN 2019 AT 9:13

मंज़िल तक जाने की चाह में हर रास्ता आज़मा लिया,
ज़िंदगी छूट रही थी हाथों से, सांसो को दांव पर लगा लिया ।
रास्ते अंगार थे और पैर हमारे मोम के,
हम ज्यों ही चले उनपर, उनने गले से लगा लिया ।
मैं गले लगने के बाद पीठ पर अपनी एक खंजर पा रहा हूं....

मैं कुछ कहने जा रहा हूं
सुन रहे हो क्या
वो कम चला रास्ता तुम भी चुन रहे हो क्या ।।

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18 MAY 2019 AT 20:54

घर वापसी में तिरंगा ओढ़ा दिया उसको,
कि बोझा बाप के कांधो पे देखो आज है कितना।

और, मौत तो आनी है जिस दिन आएगी सो आएगी
चलो पर आज देख ले कि ज़िंदा कौन है कितना।

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