आओ चलें इस रात में
इस शहर को छोड़ कर
हो गयी जो सुबह कल की
शहर फिर ना तुमको छोड़ेगा
मीठी बातों में बहलाकर
बाँहें वो अपनी खोलेगा
कहेगा तुमसे प्यार से
याद हैं वो पल सुहाने
जो साथ हमने बिताये थे
फिर भी जब तुम ना मानोगे
तो फिर खेल नये वो खेलेगा
फेंकेगा लालच के जाल नये वो
कल के डर से तुमको घेरेगा
देगा दुहाई ज़माने की तुमको
यूँही नहीं तुम्हें वो छोड़ेगा
देख कर ये सारे रूप शहर के
फिर तुम भी पिघल जाओगे
भूल कर के बात इस रात की
दिन में फिर गुम हो जाओगे
फिर बीतेगी हर रात इस रात के जैसी
तो बात हर रात यही है
आओ चलें इस रात में
इस शहर को छोड़ कर
हो गयी जो सुबह कल की
शहर फिर ना तुमको छोड़ेगा
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उसके होश ने कबूल लिया है
जीने का सलीका उसका
वरना बेहोशी के हाल में
कोई यूँ कहकहे नहीं लगाता
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मैं खुद को खोता रहा
जहाँ पाने की ख़ातिर
अब जहाँ सारा पाकर
खुद को ढूंढा करता हूँ
राहों पर जब निकला तो
मंज़िल की ख़बर ना थी
अब मान कर खुद को मंज़िल पर
राहों को ताका करता हूँ
छूट चुका है शायद मुझसे
मेरा हिस्सा ही कोई
आजकल आइना जब देखता हूँ
तो बदला-बदला नज़र आता हूँ
मिलूंगा फिर खुद से कभी
इतना तो यकीन है मुझे
सोया हुआ हूँ अभी
कोई लाश थोड़े ही हूँ
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नहीं चाहिए तेरे बंद महल की मखमली चादर का बिस्तरा
सुकून के लिए तो मेरी आसमान की चादर वाली खाट काफी है
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कभी जब पक्के रास्तों पर चलते-चलते थक जाओ
तो एक पल ठहरना और ढूंढना कोई कच्ची राह
वो राह जिससे तुम बिल्कुल अनजान हो
वो राह जिसकी मंज़िल की तुम्हें खबर नहीं
एक लक्ष्य-विहीन पथिक की तरह अपने कदम बढ़ाना
मन में तुम्हारे भय और उत्सुकता की लहर उठेंगी
लेकिन इन लहरों के आगे तुम्हें कुछ अनुभव होंगे
अनुभव अच्छे होंगे या बुरे ये कह पाना कठिन है
मगर जैसे भी होंगे उन पर केवल तुम्हारा हक़ होगा
बस उन्हीं अनुभव को समेट कर बढ़ते चलना
शायद! ये कच्ची राह तुम्हें मंज़िल तक पहुंचा दे
और अगर इन राहों पर चलते-चलते भी तुम थकने लगो
तो निकल पड़ना फिर से समेटे ख़जाने को लेकर
उसी पक्के रास्ते की ओर या ढूंढ़ लेना फिर से कच्ची राह नई
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मिट्टी की ईंट नहीं पर
विचारों की ईंट लगाई है
मैंने एक कविता बनायी है
सीमेंट से जोड़ा नहीं पर
एहसासों से जोड़ बनायी है
मैंने एक कविता बनायी है
सजा नहीं रंगों से मगर
शब्दों से अपने सजाई है
मैंने एक कविता बनायी है
पैसा नहीं खर्चा है मगर
अनुभव की सारी पूँजी लगाई है
मैंने एक कविता बनायी है
झरोंके नहीं है लकड़ी के इसमें
बस मन की एक खिड़की लगाई है
मैंने एक कविता बनायी है-
मन बुलाये तो जग खींचे
जग बुलाये तो मन खींचे
इस मन और जग के खेल में
मैं मासूम बिन बात पिसूँ
कोई बताये मैं क्या करूँ
जीवन के दस्तूर इस जग के अपने हैं
मगर इस मन ने भी लिख दिये
कुछ दस्तूर अपने हैं
अब किन दस्तूरों को मानूँ मैं
किन दस्तूरों पर मैं चलूँ
एक अदालत का निर्दोषी
अब दूजी में दोषी बनूँ
कोई बताये मैं क्या करूँ
मैं चलूँ जो राह मन की
जग प्यारा सा लगने लगे
और पकडूँ जो राह जग की
मन सच्चा सा लगने लगे
इसी उलझन में खड़ा हुआ मैं
राहें बस तकता रहूँ
कोई बताये मैं क्या करूँ
मैं करूँ इश्क़ जो अपने मन से
तो जग रूठा सा महबूब लगे
और करूँ इश्क़ जो इस जग से
तो मन सच्चा महबूब लगे
इन महबूबों के बीच फँसा मैं
इश्क़ को बस ढूँढा करूँ
कोई बताये मैं क्या करूँ-
मैं चाहे जो लिखूं
शब्द चाहे जो चुनूँ
मेरे कागज़ पर
मेरे मन का चित्र
उतरना चाहिए
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मैं प्रेम लिखना चाहता हूँ
मगर तब क्या लिखूं
जब मन नफ़रत से भर जाए
मैं शुक्रिया लिखना चाहता हूँ
मगर तब क्या लिखूं
जब मन शिकायतें करने लगे
मैं करुणा लिखना चाहता हूँ
मगर तब क्या लिखूं
जब मन ही हिंसक होने लगे
मैं आनंद लिखना चाहता हूँ
मगर तब क्या लिखूं
जब मन ही कुंठित हो जाए
मैं आज़ादी लिखना चाहता हूँ
मगर तब क्या लिखूं
जब मन में भय समाया हो
बेहतर है मैं कुछ ना लिखूं
जब तक मेरी चाहत और मन
अपने बीच का फासला ना मिटा लें
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मेरी डायरी के पन्ने
मेरे कलम की स्याही
मेरे फ़ोन की नोटबुक
मेरे दिल के जज़्बात
आजकल ये सब पूछते हैं
बस एक सवाल
सब खैरियत तो है ज़नाब?
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