जब भी गहराती है ये रात काली
मन में उठे तूफानों से जूझती है ये रात सारी
होते हैं शिकार तन्हाइयों के जब हम
तो फ़िर चांद के उजाले से भी न होती
ज़िंदगी की ये रात उजियारी
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आज भी महकता है किताब का हर पन्ना उसके दिए फूलों से
तो फ़िर कैसे निकाल फ़ेंक दूं ,यादों को उसकी दिल से-
नग़में नये हों या पुराने,क्या फ़र्क पड़ता है
दिल को जो छू जाये हर वो गीत,सुहाना लगता है
ज़रूरत होती ही नहीं किसी के साथ की फ़िर
चाय की चुस्कियों के साथ,गीत जब रूह में उतरता है
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मखमली लिबास में लिपटे जब ख़्वाब मेरे तो कीमती हो गये
तेरे मिलने से हम भी बेशकीमती हो गये
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मुद्दा आज भी फ़िर वही पुराना है
चाय पे तुमको एक बार तो बुलाना है
दीवार जो खिंच गई है
शिकवे-शिकायतों की बीच हमारे
करके बातचीत उसको गिराना है
चाय पे तुमको एक बार तो बुलाना है
जानते हैं कि नहीं आओगे जल्दी से
बुलाने पे तुम पर......
तुम्हारी इस जिद्द को ही तो हराना है
चाय पे तुमको एक बार तो बुलाना है
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ताउम्र के लिए हो जाएं कैद तेरी बाहों में, सज़ा मुक़र्रर हो तो कुछ ऐसी हो
कि मिले ही न कभी रिहाई हमको,तुझे पाने की चाहत हो तो कुछ ऐसी हो
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माना कि दूर हो गए हो हमसे
फ़िर भी ख्वाइश यही है कि
चाय पर मुलाक़ात करो किसी रोज़ हमसे
फासले इतने भी न बढ़ाओ कि
सामना भी हो न सके कभी तुमसे-
थम से गए हैं हम
जब से मिला नहीं तेरा संग
कॉफी पीने के बहाने से ही
करें एक मुलाक़ात
इसी बहाने शायद बेरंग ज़िंदगी में
भर जाएं कुछ रंग
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पहनाई जो पायल तूने दिल में हलचल हुई
छुआ जो तूने तो शोख अदाएं मेरी चंचल हुईं
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उम्र भर का खालीपन दे दिया उसने
जिसके होने से,
रौनक-ऐ-बहार हुआ करती थी कभी
गुजरा करती हैं शामें भी तन्हा अब मेरी
ज़िंदगी भी गुलज़ार होती नहीं अभी
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