इतने सालों तक होती है वो लाड़ली,
बिदा हो जाती है ससुराल रोती हुई वो पगली।।
पराए घर को बनाती है वो अपना,
खुशियां परोस्ती रोज भूल कर खुद का सपना।।
चली जाती है कभी कभार अपने मायके,
मेहसूस करती वो अब नहीं रही इस घर के।।
आंखों में आसूं लिए चुप चाप रहती है,
क्यों कि वो दर्द न किसी को दिखा सकती है।।
आरे मैं पूछती हूं सवाल एक आपसे,
तब क्यों रूबरू ना हो पाते उसके दर्द से।।
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